Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१३५ सुहस्ति' थे, इन आचार्योंको देखते ही राजाके मनमें विचार आया कि इन्हें मैंने कभी देखा है; इस प्रकार ऊहापोह करनेपर उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया और पूर्वजन्मकी बातें याद आ गयीं । विचारोंमें तल्लीन होनेसे राजाको मूर्छा आ गयी । मन्त्रियोंने वायु-प्रक्षेप और शीतोपचारोंसे राजाको सचेत किया।
सावधान होकर महाराज सम्प्रति महलसे नीचे आया और अपने गुरु आर्यसुहस्तिकी तीन प्रदक्षिणा दी तथा नमोऽस्तु कर कहने लगा-"प्रभो! क्या आप मुझे पहचानते हैं ? आर्य सुहस्तिने अपने ज्ञानबलसे तत्काल ही उसके पूर्वजन्मकी घटना अवगत कर ली। उन्होंने कहासामायिक व्रतके प्रभावसे तुम राजघरानेमें उत्पन्न हुए हो। यद्यपि तुमने क्षुल्लकके ही व्रतोंका पालन किया था, पर अहिंसक जैनधर्मके पालन करनेसे ऐसे तुच्छ फलोंका कोई महत्त्व नहीं। यह कल्याणकारी धर्म मोक्ष देनेवाला है, इससे जीव अपना सब तरहसे उद्धार कर सकता है ।
सम्प्रतिको गुरुवचनोंपर बड़ो भारी श्रद्धा हुई और उसने तत्काल जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इसके दो वर्ष बाद उसने कलिंग देश जीता और व्रत ग्रहण किये । सम्राट् सम्प्रतिने युवावस्थामें भारतके समस्त राजाओंको करदाता बना दिया था । अष्टकके निकट आकर सिन्धु नदी पार करनेके उपरान्त अफगानिस्तानके मार्गसे ईरान, अरब और मिस्र आदि देशोंपर अपना अधिकार किया और कर लिया।
इसके सम्बन्धमें बताया गया है कि इसने सिन्धु नदीके पारके उन सरदारोंको जीतकर-जिन्हें सम्राट अशोक भी अपने आधीन नहीं कर सका था—कर वसूल किया । जिस प्रकार अजातशत्रुके आधीन १६००० करद राज्य थे, उसी प्रकार इसके आधीन राज्यों की संख्या भी उतनी ही थी। इस तरह सम्राट् सम्प्रति जब दिग्विजय कर वापस लौटा तो अशोकके महसे ये उद्गार निकले कि 'मेरे पितामह चन्द्रगुप्त तो केवल भारतके ही सम्राट थे, किन्तु मेरा पौत्र सम्प्रति तो संसार भरका सम्राट है।"
मौर्य राजाओंके राज्यविस्तारको यवसे उपमा देते हुए बताया है कि जिस प्रकार यव (जौ) प्रारम्भमें कुछ मोटा, उसके बाद अधिक मोटा और मध्यमें सबसे अधिक मोटा होता है, १. आर्य सुहस्ति अर्द्धफालक सम्प्रदायके प्रवर्तक थे, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बरोंका संघ
भेद विक्रम संवत् १३९ में हुआ है । यह अर्द्धफालक सम्प्रदाय दिगम्बर और श्वेताम्बरोंकी मध्यकी चीज था, इसीसे आगे श्वेताम्बर सम्प्रदाय निकला है । आर्य सुहस्तिने उज्जयिनीमें उस वर्ष चातुर्मास किया था और चातुर्मासको समाप्तिके हर्षोपलक्षमें ही रथयात्रा वहां
की गयी थी। २. नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १६ अंक १ पृ० ४१ । ३. जवमज्झमुरियवंसे, दाणावणिविवणिदारसंलोए ।
तसजीवपडिक्कमओ पभावओ समणसंघस्स ॥ यथा यवो मध्यभागे पृथुलः आदावन्ते च हीनः एवं मौर्यवंशोऽपि । तथाहि-चन्द्रगुप्तस्तावद् बहुलवाहनादिविभूत्या विभूषित आसीत् । ततो बिन्दुसारो बृहत्तरस्ततोऽप्यशोकश्रीबृहत्तमस्ततः सम्प्रतिः सर्वोत्कृष्टः। ततो भूयोऽपि तथैव हानिरवसातव्या । एवं यवमध्यकल्पः सम्प्रतिनृपतिरासीत् । -अभिषानराजेन्द्र सप्तम भाग पृ० १९८