Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
पश्चात् धीरे-धीरे घटते घटते सूक्ष्म हो जाता है; इसी प्रकार चन्द्रगुप्तकी विभूतिसे अधिक बिन्दुसार की विभूति, उससे अधिक अशोककी और अशोकसे भी ज्यादा सम्प्रतिकी विभूति थी । इसके पश्चात् इस वंशकी विभूति उत्तरोत्तर कम होती चली गयी । इसने अपने राज्य में सब प्रकारसे अहिंसा धर्मका प्रचार करनेका यत्न किया ।
सम्राट् सम्प्रतिने राज्य की सुव्यवस्था करनेके लिए अपनी राजधानी अवन्ती' (उज्जयिनी ) में बनायी थी । राजनैतिक दृष्टिकोणसे पाटलीपुत्रमें इतने बड़े साम्राज्यकी राजधानी रखनेसे शासन सूत्र चलाने में अनेक कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता । एक बात यह भी थी कि प्रारम्भसे उज्जयिनीमें ही सम्प्रतिकी शिक्षा दीक्षा भी हुई थी, इसलिए इस स्थानसे विशेष प्रेम भी इसका था; अतः उज्जयिनीमें राजधानी स्थापितकर आनन्दपूर्वक शासन करता था । पाँच अणुव्रतों का यथार्थ रीतिसे पालन करते हुए इसने अनेक कार्य किये थे ।
दिग्विजयके दो वर्ष पश्चात् सम्राट् सम्प्रति सम्यग्दृष्टि श्रावक बनकर संघ सहित तीर्थयात्राके लिए रवाना हुआ। इसने मार्गमें कुएँ, धर्मशालाएँ, जिनमन्दिर और अनेक दानशालाएँ स्थापित की थीं। यह संघसहित यात्रा करता हुआ ऊर्जयन्त गिरि ( गिरनारजी) पर पहुँचा तथा वहाँके सुदर्शन नामके तालाबका पुनरुद्धार कराया और शत्रुञ्जयपर जिनमन्दिरों का निर्माण कराया । इसने अपने राज्यमें शिकार खेलनेका पूर्ण निषेध करवा दिया था । इसका जीवन पूर्णतया श्रावकका था । इसकी आयु सौ वर्षकी बतायी गयी है ।
शिलालेख
यद्यपि वर्त्तमानमें एक भी शिलालेख सम्प्रतिके नामका नहीं माना जाता है, प्रायः उपलब्ध मौर्यवंशके अधिकांश शिलालेखोंका परीक्षण किया जाय तो दो-चार अभिलेखों को छोड़ शेष सभी अभिलेख सम्प्रतिके ही प्रतीत होंगे । यहाँ पर कुछ विचारविनिमय किया जायगा, जिससे पाठक उक्त कथनकी यथार्थताको सहज हृदयंगम कर सकेंगे ।
१ - पुरातत्त्व विभागके असि० डायरेक्टर रे - जनरल स्व० पी० सी० बनर्जी लिखते हैं कि ये सब शिलालेख, जिनमें यवन राजाओंके नामोंका अंगुलि-निर्देश
१. प्राचीन भारत पृ० २१८-२१९ और केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया प्रथम पुस्तक पृ० ५६ —१७२ तथा भरतेश्वर बाहुबलीवृत्ति ।
२. इण्डियन ऐटि० ३२ पर तर्क उपस्थित करते हुए उन्होंने लिखा है कि ये सभी शिलालेख अशोकके होते तो उनमेंसे किसीमें भी उन्होंने अपना नाम क्यों नहीं लिखा ? प्रियदर्शिन्ने राज्याभिषेक के नौ वर्ष बाद व्रत लिए थे, ऐसी दशामें उक्त वर्णन अशोकसे सम्बन्ध रखता हो तो उसने राज्याभिषेकसे छः मास पूर्व और गद्दी पर बैठनेके चौथे वर्ष बौद्धधर्म में प्रवेश किया होगा । यदि दूसरा धर्म परिवर्तन कहा जा सकता हो तो राजा प्रियदर्शिन्ने मगधसंघ यात्रा अपने राज्यके दसवें वर्ष में की थी, जबकि मोग्गल पुत्र के नेतृत्वमें तीसरी बौद्ध कौंसिल अशोक राज्यके सत्रहवें वर्ष में हुई थी । इन सब कारणोंसे अशोक के शिलालेख नहीं हो सकते ।