Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति उपदेश दिया-"यदि तुम अपने वचन को पूरा न करोगे, या जिन शासन को साहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का यदि अपहरण करोगे, मद्य-मांस का सेवन करोगे या नीचों की संगति में रहोगे, आवश्यक होने पर भी दूसरों को अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायगा।""
कल्लूरगुडू के इस अभिलेख में सिंहनन्दि द्वारा दिये गये राज्य का विस्तार भी अंकित है। दडिग ने राज्य प्राप्त कर जैन धर्म और संस्कृति के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इसने मंडलि नामक प्रमुख स्थान पर एक भव्य जिनालयका निर्माण कराया जो काष्ठ द्वारा निर्मित था । शिल्प कला की दृष्टि से यह अद्भुत था । अभिलेखों में दडिग का नाम कोड्गुणि वर्मा भी आता है। कोगुणि वर्मा या दडिग के पश्चात् उनका पुत्र लघुमाधव राजा हुआ जिसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र हरिवर्मा था । हरिवर्माने जैन शासनकी उन्नतिके लिए अनेक कार्य किये। इसी वंशमें राजा तडगाल माधवका उत्तराधिकारी उसका पुत्र अविनीत हुआ। नोगा मंगल दानपत्रसे जो उसने अपने राज्यके प्रथम वर्ष में अंकित कराया था ज्ञात होता है उसने अपने परम गुरु अर्हत् विजयकीतिके उपदेशसे मूलसंघके चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उरणूर जिनालयको वेन्नेलकरणि गाँव और पेरुर एवानिअडिगल् जिनालयको बाहरी चुंगीका एक चौथाई कार्षापण दिया। श्री लूईस राईसने इस ताम्रपत्रका समय ४२५ ई० निश्चित किया है। अविनीत जैन धर्मका अनुयायी था यह बात मर्करासे प्राप्त ताम्र पत्रसे भी सिर होती है । अविनीत का पुत्र दुविनीत भी जैन शासनका प्रचारक था यह १०५५-५६ के अभिलेखसे प्रमाणित है। श्री सालेतोरने लिखा है-"हम जानते हैं कि दुविनीत पक्का जैन पा उसने किरातार्जुनीय पर संस्कृत टीका लिखी थी और गुणाढ्यकी बृहत् कथाका संस्कृतमें रूपान्तर किया था। अतः यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा कि उसने अपने गुरुके प्रति भादर भाव प्रगट करनेके उद्देश्यसे पूज्यपादके शब्दावतारको कन्नड़में निबद्ध किया हो और इसका मतलब यह होगा कि हमें पूज्यपादको दुविनीतका समकालीन अर्थात् ५ वीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध और छट्ठी शताब्दीके प्रारम्भका विद्वान् मानना होगा।"२
__दुविनीतने कोगलि नामक स्थान पर "चेन्न पार्श्ववस्ति' नामक जिनालयका निर्माण कराया था। दुविनीतके पुत्र मुस्कर या मोक्कर ने “मोक्करवसति" नामक जिनालयक निर्माण कराया था।
मुस्करके पश्चात् श्री विक्रम राजा हुआ और उसके दो पुत्र हुए भू-विक्रम और शिवमार । शिवमारने श्रीचन्द्रसेनाचार्यको जिन मन्दिरके लिए एक गाँव प्रदान किया था। सालेतोरका अभिमत है कि शिषमारने प्राचीन गंग नरेशोंकी जैन परम्पराको चालू रखा था। यह प्रजावत्सल और जैन धर्मका परम उद्धारक था। इसके राज्यकालमें जैन धर्मकी पर्याप्त उन्नति हुई। १. अन्तु समस्त राज्यसं.."किडुगु कुल क्रमम् । जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग अभिलेख
संख्या २७७, कल्लूरगुडु का लेख; पृ० ४१३ २. मिडीयेवल जैनेजिम, पृ० २२-२३ ३. संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग ३, खण्ड २, पृ० ४७ ४. मिडीयेवल जैनेजिम, पृ० २४