Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१०७ त्यागकर जैन साधु हो गया था और श्रवणवेलगोलमें उसका स्वर्गवास हुआ।
प्राचीन जैन ग्रन्थ "तिलोयपण्णत्ति" में लिखा है कि-"मुकुटधारी राजाओंमें अन्तिम राजा चन्द्रगुप्तने जिन दीक्षा धारणा की'' चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें उत्तर भारतमें १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और श्रुतकेवली भद्रबाहुने १२ हजार मुनियोंके संघ सहित दक्षिणकी ओर प्रस्थान किया । हरिषेण कृत बृहत कथाकोष' में बताया है कि दीक्षित हो जानेके पश्चात् चन्द्रगुप्तका नाम विशाखाचार्य रखा गया और वे दशपूर्वियोंमें प्रथम हुए तथा भद्रबाहुने अपना उत्तराधिकार चन्द्रगुप्तको सौंपा।
राज्यभोगके पश्चात् चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु स्वामीके चरणोंमें उज्जयिनीमें श्रमण दीक्षा ग्रहण की और उनके साथ दक्षिणकी ओर विहार किया। भद्रबाहु स्वामीने अपना अन्तिम समय जानकर श्रवणवेलगोलके कटवप्र पर्वत पर समाधिमरण ग्रहण किया। चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु स्वामीके साथ रहकर उनकी अन्तिम अवस्था तक सेवा की और वर्षों तक मुनि संघका संचालन करते रहे । चन्द्रगुप्तका महत्व तीन बातोंकी दृष्टिसे है। पहली बात तो यह है कि चन्द्रगुप्तने आदर्श और अनुकरणीय शासन प्रबन्धकी व्यवस्था की। दूसरी बात यह है कि उसने अपनी प्रजामें सच्चाई और धार्मिक भावोंकी उन्नति की। तीसरी जो उसके जीवनकी प्रमुख विशेषता है वह यह है कि उसने सम्राट्के सुख भोगनेके पश्चात् मुनिपद ग्रहण किया और वर्षों तक जनसंघका नेतृत्व किया।
इस सन्दर्भके दूसरे महान् व्यक्ति सम्राट ऐल खारवेल हैं । ये चेदिवंशके सम्राट् थे और ऐल इनका विरुद था। सोलह वर्षकी अवस्थामें इनके पिता का स्वर्गवास हो गया था और २५ वर्षको अवस्थामें इनका राज्याभिषेक हुआ। राजा खारवेलने कलिंगकी प्राचीन राजधानी तोसलि को ही अपनी राजधानी बनाया था और उस समय उनकी प्रजाकी संख्या ३५ लाख थी। राज्यसिंहासन पर बैठते ही खारवेलने राजधानीकी मरम्मत करायी और नये भवन, परकोटा एवं नगर द्वार आदि बनवाये । प्रजाके जल कष्टको दूर करनेके लिए उसने एक बड़े तालाब का जीर्णोद्धार कराया। राज्यके दूसरे वर्षमें उसने दिग्विजयके लिए प्रयाण किया । यहाँ यह ध्यातव्य है कि उसके दिग्विजयका उद्देश्य केवल पराक्रम प्रकट करना नहीं था अपितु धर्मवृद्धि करना था। उसने सर्वप्रथम पश्चिमीय भारत पर आक्रमण किया और आन्ध्रवंशी सातवर्णीको अधीनस्थ किया। उसने मुशिक क्षत्रियोंकी राजधानी पर अधिकार कर लिया और काश्यप क्षत्रियोंको अभय दिया। इस दिग्विजयके हर्षोपलक्षमें खारवेलने तोसलिमें खूब आनन्दोत्सव मनाया । तीसरे वर्षमें उसने प्रजाहितके अन्य कार्य किये ।
चौथे वर्ष में खारवेल पुनः अपनी सेना लेकर पश्चिम भारतका ओर चला। अबकी बार उसने राष्ट्रिक और भोजिक क्षत्रियोंसे लोहा लिया और विजय का डंका बजाता हुआ कलिंग १. मउडघरेसुं चरिमो जिणदिक्खं धरदि चंदगुत्तो य । __तत्तो मउडधरादु पव्वज्जं णव गेण्हंति ।। १४८१ ॥ ति० प०, अ ० ४ २. कथा संख्या १३१ १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, श्रवणवेलगोल अभिलेख, न० १