Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
.
२३
सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः-परीक्षामुख ३.९६
प्रभाचन्दने शब्द और अर्थके वास्तविक सम्बन्धको सिद्धिमें उपस्थित किये गये तर्कोका उत्तर देते हुए लिखा है कि यह सत्य है कि अर्थज्ञानके विभिन्न साधनोंसे अर्थका ज्ञान समान रूपसे स्पष्ट नहीं होता; कोई अधिक स्पष्ट रूपसे वस्तुका ज्ञान कराते हैं और कोई नहीं । अग्नि शब्दसे उतना अग्निका स्पष्ट ज्ञान नहीं होता; जितना कि अग्निके जलनेसे उत्पन्न दाहका । साधनके भेदसे स्पष्ट या अस्पष्ट ज्ञान होता है, विषयके भेदसे नहीं । अतः स्पष्ट ज्ञान करानेवाले साधनसे ज्ञात पदार्थको असत्य नहीं कह सकते । साधकके भेदसे एक ही शब्द विभिन्न अर्थों के प्रकट करनेकी योग्यता रखता है ।
शब्द और अर्थकी इस स्वाभाविक योग्यतापर मीमांसकने आपत्ति प्रस्तुत की है कि शब्द-अर्थमें यह स्वाभाविकी योग्यता नित्य है या अनित्य ? प्रथम पक्षमें अनवस्था दूषण आयेगा और द्वितीय पक्षमें सिद्ध साध्यतापत्ति हो जायगी। इस शंकाका समाधान करते हुए बताया गया है कि हस्त, नेत्र, अंगुली संज्ञा सम्बन्धकी तरह शब्दका सम्बन्ध अनित्य होनेपर भी अर्थका बोध करानेमें पूर्ण समर्थ हैं। हस्त, संज्ञादिका अपने अर्थके साथ सम्बन्ध नित्य नहीं है, क्योंकि हस्त, संज्ञादि स्वयं अनित्य हैं, अतः इनके आश्रित रहनेवाला सम्बन्ध नित्य कैसे हो सकता है । जिस प्रकार दीवालपर अंकित चित्र दीवालके रहनेपर रहता है और दीवालके गिर जानेपर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शब्दके रहनेपर स्वाभाविक योग्यताके कारण अर्थबोध होता है और शब्दाभावमें अर्थबोध नहीं होता । मीमांसकके समस्त आक्षेपोंका उत्तर प्रभाचन्द्रने तर्कपूर्ण दिया है।
भर्तृहरिने अपने वाक्यपदीयमें शब्द और अर्थकी विभिन्न शक्तियोंका निरूपण किया है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें शब्द और अर्थकी स्वाभाविक योग्यताका निरूपण करते हुए भर्तृहरिके सिद्धान्तकी विस्तृत आलोचना की है । शब्द और अर्थका सम्बन्ध
जैन-दर्शन शब्दके साथ अर्थका तादात्म्य सम्बन्ध मानता है। यह स्वाभाविक है तथा कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक है। इन दोनोंमें प्रतिपाद्य-प्रतिपादक शक्ति है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञाप्य-ज्ञापक शक्ति है, उसी प्रकार शब्द और अर्थमें योग्यताके अतिरिक्त अन्य कोई कार्य-कारण आदि सम्बन्ध भाव नहीं है। शब्द और अर्थमें योग्यताका सम्बन्ध होनेपर ही संकेत होता है । संकेत द्वारा ही शब्द वस्तुज्ञानके साधन बनते हैं। इतनी विशेषता है कि यह सम्बन्ध नित्य नहीं है तथा इसकी सिद्धि प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति इन तीनों प्रमाणों द्वारा होती है ।
जैन दार्शनिकोंने नित्यसम्बन्ध, अनित्य सम्बन्ध एवं सम्बन्धाभावका बड़े जोरदार शब्दोंमें निराकरण किया है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें प्रभाचन्द्रने जो विस्तृत समालोचना की है, उसीके आधारपर थोड़ा-सा इस सम्बन्धमें विवेचन कर देना, अप्रासंगिक न होगा।
वैयाकरण अर्थबोध शब्दसे न मानकर शब्दको अभिव्यक्त करनेवाली सामूहिक ध्वनि विशेषसे ही अर्थ-बोध मानते हैं और इसीका नाम उन्होंने स्फोटवाद रखा है। इसका कहना है
सम्बन्धावगमश्च प्रमाणत्रयसम्पाद्याः-प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ११६ ।