Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
नैयायिक और वैशेषिक शब्दको अनित्य मानने हैं । उनका सिद्धान्त है कि उत्पत्तिके तृतीय क्षणमें शब्दका ध्वंस हो जाता है; यह आकाशका गुणविशेष है । लौकिक व्यवहारमें वर्णसे भिन्न नाद ध्वनिको ही शब्द कहा जाता है ।
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बौद्ध अपोह - अन्य निवृत्ति रूप शब्दको मानता है तथा इस दर्शन में शब्दको अनित्य माना गया है ।
प्रभाकरने शब्दकी दो स्थितियाँ मानी हैं- ध्वनि रूप और वर्ण रूप । दोनों रूप आकाशके गुण हैं । इनमें ध्वन्यात्मक शब्द अनित्य हैं और वर्णात्मक शब्द नित्य ।
जैन दर्शन में उपर्युक्त सभी दर्शनोंकी आलोचना करते हुए शब्दको नित्यानित्यात्मक माना गया है। तथ्य यह है कि जैन दर्शनमें विचार करनेकी दो पद्धतियाँ हैं - द्रव्याथिक नय या द्रव्यदृष्टि और पर्यायार्थिक या पर्यायदृष्टि । किसी भी वस्तुका विचार करते समय उपर्युक्त दोनों दृष्टियों में से जब एक दृष्टि प्रधान रहती है तब दूसरी दृष्टि गौण और दूसरीके प्रधान होनेसे पर पहली गौण हो जाती है । अतः द्रव्य दृष्टिसे विचार करनेपर शब्द कथञ्चित् नित्य सिद्ध होता है; क्योंकि द्रव्य रूप शब्द वर्गणाएँ सर्वदा विद्यमान रहती हैं और पर्यायदृष्टिकी अपेक्षासे शब्द कथञ्चित् अनित्य हैं; क्योंकि व्यक्ति विशेष जिन शब्दोंका उच्चारण करता है, वे उसी समय या उसके कुछ समय पश्चात् नष्ट हो जाते हैं । जैन दार्शनिकोंने पर्यायापेक्षा भी शब्दको इतना क्षण - विध्वंसी नहीं माना है, जिससे वह श्रोताके कान तक ही नहीं पहुँच सके और बीच में ही नष्ट हो जाय । एक ही शब्दकी स्थिति कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक हो सकती है । यही कारण है कि जैन दार्शनिकोंने शब्दको एकान्त रूपसे नित्य या अनित्य माननेवाले पक्षोंका तर्क संगत निराकरण किया है। कुमारिल भट्टके नित्यपक्षकी आलोचना करते हुए प्रभाचन्द्रने बतलाया है कि अर्थके वाचकत्व के लिए शब्दको नित्य मानना अनुपयुक्त है; क्योंकि शब्दके नित्यत्व के बिना अनित्यत्वसे भी अर्थका प्रतिपादन सम्भव है । जैसे अनित्य धूमादिसे सदृशता के कारण पर्वत और रसोईघर में अग्निका ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार गृहीत संकेतवाले अनित्य शब्दसे भी सदृशता के कारण अर्थका प्रतिपादन सम्भव है । यदि कार्यकारण एवं सदृशता सम्बन्धों को वस्तुप्रतिपादक न माना जाय और केवल नित्यताको ही प्रधानता दो जाय तो सर्वत्र सभी पदार्थोंको नित्यत्वापत्ति हो जायगी । अतएव कुमारिलभट्टने जो शब्दको नित्य माना है तथा शब्दकी उत्पत्ति न मानकर उसका आविर्भाव एवं तिरोभाव माना है, वह सदोष है। तर्क द्वारा शब्द कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक ही सिद्ध होता है । शब्दकी उत्पत्ति होती है, अभिव्यक्ति नहीं ।
अर्थ - प्रतिपत्ति
जैन दार्शनिकोंने अर्थ में वाच्य रूप और शब्दोंमें वाचक रूप एक स्वाभाविक योग्यता मानी है । इस योग्यताके कारण ही संकेतादिके द्वारा शब्द सत्य अर्थका ज्ञान कराते हैं । घट शब्दमें कम्बुग्रीवादिवाले घड़ेको कहनेकी शक्ति है और उस घड़े में कहे जाने की शक्ति है । जिस व्यक्तिको इस प्रकारका संकेत ग्रहण हो जाता है कि घट शब्द इस प्रकारके घट अर्थको कहता है, वह व्यक्ति घट शब्दके श्रवण मात्रसे ही जलाधारण क्रियाको करनेवाले घट पदार्थ का बोध प्राप्त कर लेता है । आचार्य माणिक्यनन्दिने अर्थ प्रतिपत्तिका निर्देश करते हुए कहा है