Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
गया जिलेमें औरंगाबादकी सीमाके पूर्व की ओर रफीगंजसे दो मीलकी दूरी पर प्रचार या पछार नामक पहाड़ है । यहाँ पर एक गुफाके बाहर पार्श्वनाथ भगवान्का मन्दिर है । विपुलाचलपर भगवान् महावीरका प्रथमोपदेश हुआ था, अतः हरिवंश पुराण में इसकी महत्ता प्रतिपादित की गयी है ।
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मगध जनपदमें गंगा, स्वर्णभद्र ( मागधी ), ऋजुकूला ( क्विल ), मयूराक्षी, सुवर्णरेखा चानन, फल्गू प्रभृति नदियोंके उल्लेख मिलते । पाटलिपुत्रके वर्णन प्रसंग में गंगाका निर्देश आता है । इसी नदी किनारे-किनारे चलकर भरत चक्रवर्तीकी सेना गंगाद्वार तक पहुँची थी । २ हिमालयके गंगोत्री झीलसे इसका प्रस्रवण प्रारम्भ होता है । त्रिलोकसारमें गंगाके उत्पत्ति स्थानका विस्तार पूर्वक वर्णन आया है ।
शोणनदका नाम मागधी नदी भी है। अपनी विशाल जलराशि और शोणित बालुकामय कणों के कारण यह शोणभद्र कहलाती है ।
ऋजुकूलाका वर्णन हरिवंश पुराणमें आया है । तिलोपण्णत्ति में भी इस नदीका नाम आया है । मयूराक्षी राजगृहके आस-पास कोई छोटी नदी है और सुवर्ण रेखाको पुनः पुनः का पर्याय माना गया है ।
आर्थिक समृद्धि
मगध जनपदकी आर्थिक समृद्धिका वर्णन पद्मचरित कुवलयमाला, हरिवंश चरित, अभयकुमारचरित, श्रेणिकचरित, आख्यान मणिकोश, चउप्पन्नमहापुरिसचरिय, वसुदेवहिण्डी आदि ग्रन्थोंमें आया है । यह जनपद व्यापारका केन्द्र था, यहाँ नाना देशोंके व्यापारी आते थे । राजगृह नगरी में स्वर्ण, मौक्तिक, रजत, धन-धान्य आदिका क्रय-विक्रय होता था । कुवलयमाला में मगध जनपदके व्यापारियोंका वर्णन करते हुए लिखा है
हरिय-पो-दुव्वण्ण-मडहए सुरय-केलि- तल्लिच्छे ।
'एगे लें' जंपुल्ले अह पेच्छइ मागहे कुमरो ॥
— अनुच्छेद २४६ पृ० १५२ मगध देशके व्यापारी बाहरकी ओर निकले हुए स्थूल उदरवाले, कुत्सितवर्ण वाले, ठिगने, कामक्रीडा रसिक और 'एगेले' इस प्रकार बोलनेवाले होते हैं ।
राजगृह और पाटलिपुत्रमें अनेक धनिक सार्थवाह रहते थे, जो व्यापारके हेतु सामुद्रिकयान लेकर चलते थे । रविषेणने पद्मचरितमें बताया है
पञ्जरं
साधूनां सङ्गमः सद्भिर्भूमिर्लाभस्य वाणिजैः । शरणप्राप्तंर्वज्रदारुविनिर्मितम् ॥ - पद्म० २।४२ मगध देशको सज्जनोंने सत्समागमका स्थान माना था, व्यापारियोंने लाभकी भूमि और शरणागत मनुष्योंने वज्रमय लकड़ीसे निर्मित - सुरक्षित पञ्जर समझा था ।
९. वही, पृ० ६२८ ।
२. आदिपुराण २९/४९; २८|१३; ३२।१६३ ।
३. वही, २९।४९; २९।५२ ।
४. तिलोय पण्णत्ति ४।७०१ ।