Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
हरिवंश पुराणके एक अन्य कथानकसे ज्ञात होता है कि महाराज श्रीकृष्णका युद्ध जब जरासिन्धुके साथ हो रहा था तो दक्षिण भारतके कई राजा भी उनके पक्षमें थे। इसका कारण यह है कि मदुरामें पाण्डवोंका राज्य स्थापित हो जानेपर द्राविड़ राजाओंका सम्पर्क उत्तरके राजाओंके साथ घनिष्ठ होता जा रहा था। चेर, चोल, पाण्डय आदि वंशके राजाओंका इनके साथ धनिष्ठ सम्बन्ध था। इसलिये पाण्डवोंके साथ इन्होंने जिन-दीक्षा ग्रहण की थी।
___णायकुमार चरिउ' में कहा गया है कि भगवान् नेमिनाथके तीर्थकालमें कामदेव नागकुमार हुए थे। नागकुमारका मित्र मथुराका राजकुमार महाव्याल था। यह महाव्याल पाण्ड्य देश गया था और पाण्ड्य राजकुमारीको विवाह कर ले आया था। भगवान् पार्श्वनाथके समयमें करकण्डु नामका एक राजा हुआ है । उसने अपने राज्यका खब विस्तार कर एक दिन मंत्रीसे पूछा, हे मन्त्री ! क्या कोई ऐसा राजा है जो मुझे मस्तक न नमाता हो ? मंत्री ने उत्तर दिया-उत्तरके तो सभी राजा आपकी आधीनता स्वीकार कर चुके हैं, पर द्राविड़ देशके चेर, चोल और पाण्ड्य नरेश आपको नहीं मानते । राजाने उनके पास दूत भेजा, पर उन राजाओंने करकण्डुकी अधीनता नहीं स्वीकार की और यह कहकर दूतको वापस कर दिया कि हम जिनेन्द्र भगवान्को छोड़ और किसीको सिर नहीं झुका सकते। राजा करकण्डुको द्रविड़ राजाओंके उत्तरने अधिक उत्तेजित कर दिया; इससे उसने प्रतिज्ञा की कि जबतक इन राजाओंको वशमें न कर लूंगा, शान्तिसे राज्य नहीं करूंगा और इनको पददलित न करूं तो राज्य-पाट छोड़ दूंगा।
__ करकण्डुने सेना सजाकर युद्ध के लिये प्रस्थान कर दिया और रास्तेमें तेरापूर नगर में पहुँचा, यहाँ राजा शिवने उसे भेंट चढ़ाई तथा राजा शिवके परामर्शसे पासकी पहाड़ीकी गुफामें भगवान् पार्श्वनाथके दर्शन किये। उस पहाड़ी पर चमत्कारकी एक बात यह थी, एक हाथी प्रतिदिन उस पहाड़ी पर स्थित एक वामीकी पूजा करता था। राजा करकण्डुने उसकी पूजाको देखकर अनुमान लगाया कि निश्चित इस वामीके नीचे कोई देवमूत्ति है, अन्यथा यह पशु पूजा नहीं करता, अतः उस वामीको खुदवाया। खुदाईमें नीचे भगवान् पार्श्वनाथको एक मूर्ति निकली जिसे वह बड़ी भक्ति और श्रद्धाके साथ गुफामें ले आया। इसके पश्चात् वह राजा इधर-उधर भ्रमण करता हुआ दक्षिण पहुँचा तथा चेर, चोल और पाण्ड्य नरेशोंकी सम्मिलित सेनाओंका सामना किया तथा अपने युद्ध कौशलसे उन्हें हराकर अपना प्रण पूरा किया। जब करकण्डु राजा उन पराजित राजाओंके सिरके ऊपर पैर रखने लगा तो उनके मुकुटोंमें स्थित जिन प्रतिमाओंके दर्शन उसे हुए; जिससे उसे भारी पश्चात्ताप हुआ। उन्हें उसने फिर राज्य देना चाहा, पर वे स्वाभिमानी द्रविड़ाधिपति यह कर तपस्याको चले गये कि अब हमारे पुत्र-पौत्रादि ही राज्यको चलायेंगे ।
जम्बू स्वामी चरित्रसे भी अवगत होता है कि विद्युच्चर नामका चोर जम्बू कुमारके प्रभावके कारण चोरीसे विरक्त हो गया था और यह भ्रमण करता हुआ समुद्रके निकट स्थित
१. संक्षिप्त जैन इतिहास भाग ३ खं० १ पृ० ११४ । २. हा हा मइं मूढई किं कियउ, जिंण बिंचु विचरणे आहयउ ।