Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान इनके अतिरिक्त पेरकदै, यशोधरकाव्य, चूड़ामणि, एलादी, कलिंगतुप्परणी, नन्नूल, नेमिनाद, यप्पांरु, श्रीपुराण, मरुमंदर पुराणं आदि तामिल ग्रंथ भी कम प्रशंसा के योग्य नहीं। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि व्याकरण, छन्द, अलंकार, दर्शन और जैनागम प्रभृति विभिन्न विषयोंके उत्तमोत्तम ग्रंथ लिखकर तामिल वाङ्मयको समृद्धिशाली और उत्कृष्ट स्थितिमें लानेका श्रेय जैनाचार्योको ही है। जैनाचार्य पूज्यपादके शिष्य व्रजनन्दिने पाण्ड्योंकी राजधानी मदुरामें एक विशाल जैन संघकी स्थापना की थी। इस संघ द्वारा तामिल प्रांतमें जैनधर्म का खूब प्रचार हुआ। आचार्य कुंदकुंदने पोन्नूरग्रामके निकट नीलगिरि नामक पर्वत पर तपस्या की थी, इनके आश्रम में आकर पल्लव वंशी शिवस्कन्दवर्म महाराजने प्राभृत त्रयका अध्ययन किया था। '
तामिल देशके इतिहासमें जैनधर्मका ई० तीसरी और चौथी शताब्दीमें कम प्रभाव दिखाई पड़ता है । पांचवीं और छठीं सदीमें शवधर्मका बड़ा भारी जोर रहा है, फिर भी जैनोंकी तात्कालीन परिस्थितिका चित्रण वैष्णव और शैवपुराणोंमें मिल जाता है। सातवीं शताब्दीसे लेकर ११वीं शताब्दीतक शवधर्म के समानान्तर जैनधर्म भी चलता रहा । गंगवाडिके गंगवंशीय राजाओंने इस धर्मको विशेष प्रोत्साहन दिया, जिससे विधर्मियोंके द्वारा नाना प्रकारके अत्याचारोंके होनेपर इसकी क्षीण रेखा ११ वीं सदीके अन्ततक दिखलाई पड़ती रही।
अनेक विदेशी विद्वानोंने अपने-अपने इतिहासमें तामिल प्रांतकी जैनधर्मको उन्नतिका वर्णन किया है। विशप काल्डवेलका कहना है कि जैनोंकी उन्नतिका युग ही तामिल साहित्यको उन्नतिका महायुग है । इन्होंने तामिल, कनड़ी और दूसरी लोकभाषाओंका प्रचार किया, जिससे वे जनताके सम्पर्क में अधिक आये । सरवाल्टर इलियटके मतानसार दक्षिणकी कला और कारीगरीपर जैनोंका अमिट प्रभाव है । तामिल प्रदेशमें जैनोंके द्वारा ही अहिंसाका विशेष प्रचार हुआ, जिससे जनताने मद्य, मांस और मधु भक्षणका भी त्याग कर दिया था। ब्राह्मणोंपर जैनोंकी अहिंसाका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि यज्ञोंमें भी हिंसा बन्द हो गई । जीव हिंसा-रहित यज्ञ किये जाने लगे। कुछ विद्वानोंका अभिमत है कि विग्रहाराधना, पुराणपुरुषोंकी पूजा, गणपति पूजा, देवस्थान-निर्माण-प्रथा और जीर्णोद्धार-क्रिया प्रभृति बातें शैव और वैष्णव मतोंमें जैन सम्प्रदायकी देखादेखी प्रचलित हुई। अतएव तामिल देशमें ई० पू० ३००से लेकर ई० ११०० तक जैनधर्मका खूब प्रचार हुआ, किंतु इसके अनन्तर शैव और वैष्णवोंके धर्मद्वेषके कारण प्रभावहीन हो गया।
___ कर्णाटक-इस प्रांतमें जैन धर्मका विस्तार बहुत हुआ; वहाँकी राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार प्रभृति सभी बातें जैनधर्मसे अनुप्राणित थीं। अनेक जैन राजाओंके साथ-साथ ऐसे निष्णात विद्वान्, कवि, कलाकार और प्रभावक गुरु हुए, जिनका प्रभाव दक्षिण प्रांतकी कर्णाटक भूमिके कण-कणपर विद्यमान था। सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सभी मामलोंमें जैनाचार्योंका पूरा-पूरा हाथ था, उनकी सम्मति और निर्णयके उपरान्त ही किसी भी सांस्कृतिक कार्यका प्रारम्भ होता था । भद्रबाहु स्वामीके संघके पहुंचनेके पहले भी यहाँ जैन गुरुओंको सम्मान्य स्थान प्राप्त था। मौर्य साम्राज्यके बाद इस प्रांतमें आन्ध्रवंशका शासन स्थापित हुआ, इस वंशके सभी राजा जैनधर्मके उन्नायक रहे हैं । इनके शासन-कालमें सर्वत्र जैनधर्मका अभ्युदय था। इसके पश्चात् उत्तर-पूर्वमें पल्लव और उत्तर