Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयक। अवदान भगवान्ने मोहमाया नामक एक दिगम्बर साधुको उत्पन्न किया और दैत्योंको जैनधर्मका उपदेश उससे दिलाया, जिससे दानव दि० जैनधर्म में दीक्षित हो गये । इस संवादमें एक रहस्य यह छिपा प्रतीत होता है कि विष्णुने दिगम्बर जैन मुनि का अवतार लेकर असुरोंको दीक्षा दो । यहाँ यह मान लिया जाय कि असुर जिनका यहाँ वर्णन किया गया है, वे वही लोग पे जो यहाँके आदिम निवासी थे और दक्षिण भारतके किनारेके प्रदेशोंमें रहते थे । ये आदिम निवासी सभ्य, संस्कृत और स्वतन्त्र थे, दास नहीं। इन्होंने आर्योंके आनेके पूर्व भारतको अपने अधिकारमें कर लिया था; तो इससे स्पष्ट है कि जैनधर्मका केन्द्र उस समय नर्मदा नदीके तटपर स्थित था जो कि आज भी तीर्थ स्थानके समान पूज्य है ।
उपर्युक्त कथनका समर्थन काठियावाड़में प्राप्त एक ताम्रपत्रसे भी होता है । यह ताम्रपत्र महाराज नेबूचदनेज्जर प्रथम अथवा द्वितीय (ई० पू. ११४० या ई० पू० ६००) का है। प्रो० प्राणनाथने इसका वाचन करते हुए बताया था कि यह महाराजा विवलोनियाका निवासी था, वहाँसे यह द्वारिका आया था; यहाँपर इसने एक मन्दिर बनवाया और इस मन्दिरको नेमि या अरिष्टनेमिको अर्पण किया। नेमि उस समय रैवत गिरि (गिरनार) के देव थे । इससे स्पष्ट है कि नेमि या अरिष्टनेमि जो कि जैन तीर्थङ्कर हैं, के प्रति नेबूकी बड़ी भारी श्रद्धा और भक्ति थी। इस ताम्रपत्र में प्रतिपादित नेबू राजाको रेवानगरका स्वामी भी बताया है, संभवतः यह नगर सिद्धवर कूटके निकटका एक स्थान होगा, जो कि दक्षिण भारतमें रेवा नदीके तटपर स्थित है।
दक्षिण भारतमें जैन धर्मकी प्राचीनताके जैन साहित्यमें अनेक प्रमाण हैं । निर्वाणकाण्डको निम्न गाथामें बताया है
__ पण्डुसुआतिण्णिजणा दविडरिंदाण अट्रकोडिओ।
सेतुंजय गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसि ।। अभिप्राय यह है कि पल्लवदेशमें विराजमान भगवान् अरिष्टनेमिके निकट पाण्डवोंने जिनदीक्षा ग्रहण की थी; इनके साथ दक्षिण देशके और भी कई राजाओंने मुनिव्रत धारण किया था; जो कि पाण्डवोंके साथ तपकर शत्रुजयगिरिसे मुक्त हुए थे।
महापुराणमें बताया गया है कि जब कल्पवृक्ष लुप्त हो गये और कर्म भूमिका आरम्भ हो गया तो अन्तिम कुलकर नाभि राजाके पास प्रजा आयी। उन्होंने उसे भगवान् ऋषभनाथके पास भेज दिया। प्रजाने भगवान् ऋषभनाथसे प्रश्न किया-भगवन् ! कृपाकर आजीविकाका उपाय बतलाइये, जिससे हमलोग सुखपूर्वक रह सकें। भगवान्ने प्रजाको षट्कर्मोंका उपदेश दिया। उनके स्मरणमात्रसे इन्द्र अनेक देवोंके साथ आ उपस्थित हुआ और उसने संकेतमात्रसे ही नगर, गाँव, देश और प्रान्तोंका वर्गीकरण कर दिया। तथा वहाँ जिन चैत्यालय, जिनबिम्ब एवं अन्य जैन संस्कृतिके चिन्होंको प्रकट किया। बनाये गये देशोंकी संख्या ५२ बतायी गयी है; जिसमें दक्षिण भारतके अनेक बड़े-बड़े नगर शामिल हैं१. See Indian Culture April 1938. P. 515, and Times of India, 19th
March 1935, P.9. २. देखें-संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ खं० १ पृ० ११४ । ३. जिनसेनाचार्य विरचित महापुराण पर्व १६ श्लो० १३०-१६५ ।