Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
८८
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लोकधर्मं
मगध में आत्मधर्मके साथ लोकधर्मका प्रचार था । नायाघम्मकहाओमें लोकधर्म सम्बन्धी प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है । श्रमण और वैदिक दोनों ही समन्वय प्रधान लोकधर्मको महत्त्व देते थे । आर्य संस्कृति, द्रविड, निषाद एवं किरात संस्कृतियोंके सम्मिश्रणसे एक धार्मिक परम्पराका आरम्भ हुआ, जो लोकधर्म के नामसे प्रसिद्ध हुई ।
मगध जनपद में विभिन्न प्रकारके मेले और उत्सवोंमें लोकधर्मका आचरण किया जाता था । प्राचीन कालमें इस प्रकारके धर्म प्रधान उत्सव मह या मख कहलाते थे । द्विजातियोंके जीवन में जो स्थान वैदिक यज्ञोंका था, वही स्थान मह नामक उत्सवोंका था । नायाधम्मकहाओमें राजगृहमें सम्पन्न होनेवाले पन्द्रह मह या उत्सवोंका निर्देश आया है । बताया है
अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेइ वा खंदमहेश्वा एवं रुद्दसिववेसमण नाग-जक्ख भूय, नई - तलाय - रुक्खचेइय उज्जाणगिरि जत्ताइ वा जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव ए गदिसि ए गामिमुहा निग्गच्छति । नायाधम्मका १२५, वैद्य संस्करण पृ० २३
( १ ) इंदमह - इन्द्रमह, (२) खंदमह - स्कन्दमह, (३) रुद्रजत्ता — रुद्रयात्रा (४) सिवजत्ता - शिवयात्रा, (५) वेसमणजत्ता - वैश्रवण यात्रा, (६) नागजत्ता - नागयात्रा, (७) जक्खजत्ता - यक्षयात्रा, (८) भूयजत्ता - भूतयात्रा, (९) नईजत्ता – नदीयात्रा, (१०) तलायजत्तातडागयात्रा (११) रुक्खजत्ता - वृश्नयात्रा ( १२ ) चेइयजत्ता - चैत्ययात्रा (१३) पव्वयजत्ता - पर्वतयात्रा (१४) उज्जाणजत्ता - उद्यान यात्रा (१५) गिरिजत्ता - गिरियात्रा ।
रायपसेणियसुत्त में जत्त के स्थानपर मह पाठ प्राप्त होता है । इन्द्रमह उत्सव विशेष महत्त्वपूर्ण है। वर्षा ऋतु में प्रजा और राजा मिलकर देवराज इन्द्रका पूजन करते थे । इन्द्रमहका सम्बन्ध किसानोंकी खेती के साथ है । इन्द्रमहमें फल, गन्ना, केला आदि से इन्द्रकी पूजा की जाती है । इन्द्रमह वस्तुतः जातीय स्तरका उत्सव था, जिसमें राष्ट्रीय देवताके रूपमें इन्द्रकी गणना की गयी है ।
खन्दमहसे तात्पर्य स्कन्द पूजासे है । फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिक माह में कृष्णपक्ष में षष्ठी तिथिको स्कंदपूजा होती है । स्कंदको षडानन, ब्रह्मण्य और कार्तिकेय भी कहा गया हैं । स्कंदके विकासकी प्रथम स्थिति पिशाचके रूपमें थी । अनंतर रुद्र के साथ स्कन्दका समन्वय हुआ । पश्चात् अग्निके साथ और अन्तमें इन्द्रके साथ, जिसके फल स्वरूप गुप्तकाल में देवसेनाके सेनापति के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । इस विकास क्रममें एक छोटी सी शाखा और निकली, जिसके अनुसार स्कंद बालग्रह या बच्चोंका रक्षक माना गया । कुषाणकाल के आस-पास स्कंदकी पूजाका लोकमें अत्यधिक प्रचार था । एक ओर कार्त्तिकेयको युद्ध देवताके रूपमें मान्यता मिली और दूसरी ओर शक्तिघरके रूपमें । स्कंदके अनुशासनमें अनेक देवता थे, भक्तोंके कार्योंकी सिद्धि करते थे ।
नागमहमें नागदेवताका उत्सव सम्पन्न किया जाता था । नागपूजा यक्ष पूजासे भी प्राचीन है । नागका सम्बन्ध सभी देवोंके साथ है। कई प्राकृत आख्यान नागसे सम्बद्ध हैं । वृक्ष पूजाका प्रचार प्राचीन भारत में पर्याप्त था। पीपल, वट, तुलसी, आमलकी आदिकी पूजा