Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति कुण्डल, अंगद, केयूर, कटक, मुद्रिका, मेखला, रशना, काञ्ची, नूपुर आदि धारण किये जाते थे । नर और नारी दोनों ही आभूषणोंका व्यवहार करते थे। अन्य प्रसाधन सामग्री में केश, मुख एवं अन्य शारीरिक अंगोंको सज्जीकृत करनेके लिए केसर, कस्तूरी, पुष्प, अन्य सुगन्धित चूर्ण, गन्ध, माल्य, उद्वर्तन, कालागुरु, विलेपन आदिका उल्लेख मिलता है।' क्रीड़ा-विनोद एवं गोष्ठियाँ
__ मगधवासी कन्दुकक्रोड़ा, सहकारवनक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, वनक्रीड़ा, दोलाक्रीड़ा, एवं ऋतुक्रीड़ाओंमें विशेष रुचि रखते थे ।२ मनोरंजनके लिए संगीत और चित्रकलाओंका भी उपयोग किया जाता था । कथा और काव्यगोष्ठियोंमें भी इस जनपदके निवासी भाग लेते थे ।
संगीतका मगधमें पूर्णतया प्रचार था । वीणा, मुरज, पणव, शंख, तूर्य, काहला, घण्टा, मृदंग, दुन्दुभि, तुणव, महापटह, पुष्कर, भेरी आदि वाद्य उत्सवोंके अवसर पर बजाये जाते थे। कई प्रकारको वीणाओंका भी व्यवहार किया जाता था। गीतके तीन आकार, षड्दोष, अष्टगुण एवं तीन प्रकार हैं । जो ज्ञानपूर्वक गीत गाया जाता है, उसे ललित गीत कहते हैं। तीन आकारोंके अन्तर्गत मृदुगीत ध्वनि, तीव्र गीतध्वनि एवं लययुक्त हल्की गीतध्वनि आती है । मगधके गीतकार रागपूर्वक मूर्च्छनाओंका ध्यान रखते हुए स्वरविशेषोंसे अलंकृत कर गाते थे । वारवनिताएँ गीत गानेमें प्रवीण होती थीं।
मनोविनोदके लिए नृत्यकलाका व्यवहार किया जाता था। नृत्यमें निम्नलिखित तत्त्वोंका समावेश किया जाता था। (१) भावोंका अनुकरण
भिनय पर बल (३) भावोंका अवलम्बन (४) कटाक्ष या मुस्कराहटका उपयोग (५) गीतियों द्वारा नृत्य (६) शारीरिक चेष्टाओंका प्रदर्शन (७) हाव-भाव और विलासका प्रदर्शन
नाना प्रकारके नृत्योंका प्रचार मगधमें था । ताण्डवनृत्य, अलातचक्रनृत्य, इन्द्रजालनृत्य, चक्रनृत्य, सूचीनृत्य, लास्यनृत्य, कटाक्षनृत्य, बहुरूपिणी नृत्य आदिका प्रचलन था । मनोविनोदके हेतु मगधमें काव्यगोष्ठीको योजना की जाती थो। कवि अपने कल्पना वैभव द्वारा जनताका अनुरंजन करते थे । कलागोष्ठियोंमें नृत्य, संगीत, चित्र सम्बन्धी चर्चाएं होती थीं। द्यूत और घुड़दौड़ भी मनोरंजनमें परिगणित हैं।
१. कथाकोषप्रकरण दशवीं कथा२. जंबुसामिचरिउ ४।२; ८॥३, ९।१२-१३ ३. संगीतस्वनसंयुक्तर्मयूररवमिश्रितैः।। ____ यस्मिन्मुरजनिर्घोषैर्मुखरं गगनं सदा ॥-पद्म० २।२८ ४. जंबुसामिचरिउ ३८।९ तथा १११० गन्धर्वनगरं गीतशास्त्रकौशलकोविदः । वही २।४१