Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
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उत्तर पक्ष- समीक्षा
तत्त्वोपप्लववादीका यह कथन सर्वथा निराधार है कि जीवसिद्धि किसी भी प्रमाणसे सम्भव नहीं । आस्तिकवादी दार्शनिकोंने जीवके नास्तित्व धर्मकी सिद्धि के लिए जो अनुपलब्ध हेतु दिया है, वह निःसार है, क्योंकि प्रत्येक प्राणीमें जीवके होनेका प्रमाण स्वसंवदेन रूप ज्ञानके द्वारा सिद्ध होता है । मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ आदि अनुभव स्वसंवेदन गोचर है । अतः प्रत्येक प्राणीमें आत्मतत्त्वकी अनुभूति होती है । अतएव सुख-दुःख राग-द्वेष आदि भावोंसे युक्त जीव पदार्थ प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध होता है । प्रत्येक प्राणी स्वानुभूतिसे अपने अस्तित्वको जानता है ।
दूसरी बात यह है कि धर्मी वह होता है, जो प्रमाणसे सिद्ध है । तत्त्वोपप्लववादीने जीवका अभाव सिद्ध करनेके लिए जो यह अनुमान दिया है - 'जीव कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती' यह अनुमान मिथ्या है, क्योंकि जीवनरूपी धर्मी प्रत्यक्षादि प्रमाणसे सिद्ध है ।
यह
जब जीव पदार्थ प्रमाणसे सिद्ध है, तब उसका नास्तित्व सिद्ध करनेके लिए व्यर्थ हेतुका प्रयोगकर अपनी हँसी कराना है। यह कहना ठीक नहीं है कि ज्ञान कलशादिके समान ज्ञेय होनेसे अपने स्वरूपको नहीं जानता, किन्तु अन्य पदार्थोंको जानता है । अर्थात् जैसे कलशको अपना ज्ञान नहीं होता, पर औरोंको उसका ज्ञान होता है, इसी तरह ज्ञानको स्वयं अपने स्वरूपका निश्चय नहीं होता, पर उसके रूपका निश्चय दूसरा उत्तर कालीन ज्ञान करता है, विचार-सरणि मिथ्या है । ज्ञान स्वपर - प्रकाशक है; यह इसका निजी धर्म दीपक के समान है | जिस प्रकार दीपक अपनेको प्रकाशित करके ही अन्य विषयोंको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी अपने को जान कर ही अन्य विषयों या भावोंको अवगत करता है । जो ज्ञान अपनेको नहीं जानता, उसकी प्रवृत्ति अन्य विषयोंमें हो ही नहीं सकती, क्योंकि, पूर्व - पूर्वके ज्ञेय रूप ज्ञानका निश्चय करनेके लिए उत्तरोत्तर जो भी ज्ञान होंगे, वे भी ज्ञेय ही होंगे । अतः जब वे ज्ञान-स्वरूपके निश्चय करनेमें ही चरितार्थ हो जायेंगे तब उनकी प्रवृत्ति दूसरे विषय में नहीं हो सकती ।
१. जीवो नास्तीति पक्षोऽयं प्रत्यक्षादि-निराकृतः,
तत्र हेतुमुपन्यस्यन् कुर्यात् कः स्वविडम्ननाम् । - चन्द्रप्रभचरितम् २/५४
२. प्रतिजन्तु यतो जीवः स्वसंवेदनगोचरः,
सुख-दुःखादिपर्यायैराक्रान्तः प्रतिभासते । —- चन्द्रप्रभचरितम् २/५५
३. न चास्वविदितं ज्ञानं वेद्यत्वात् कलशादिवत्,
स्वात्मन्यपि क्रियादृष्टेः दीपादेः स्वप्रकाशनात् । विषयान्तरसंचारो न च स्यादस्ववेदिनः,
अपरापरबोधस्य वेदनीयस्य संभवात् ।
अनवस्था लता च स्यान्नभस्तत्र विसर्पिणी, यदेवाविदितं तेषु तन्न पूर्वस्य वेदकम्, तस्माद् विषयविज्ञानमप्रत्यक्षमवस्थितम्, यदप्रत्यक्षतायां च विषयस्यापि सा गतिः । परोक्षादपि चेज्ज्ञानादर्थाधिगतिरिष्यते, परेण विदितोऽप्यर्थस्तथा स्वविदितौभवेत् । वही २/५०-५५