Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
प्रस्तुत पद्यमें व्रीडाविलक्ष कार्य है और गोत्रस्खलन कारण है। इस कार्य-कारणभाव द्वारा राजाकी शकुन्तलाके विरहके कारण उत्पन्न हुई मानसिक अवस्थाका परिचय प्राप्त होता है।
__दुष्यन्त प्रतिहारीको आदेश देता है कि आज विलम्बसे जगनेके कारण धर्मासनपर बैठना सम्भव नहीं है, अतएव अमात्यसे कहना कि जिन नागरिक कार्योंका अवलोकन किया है उन्हें पत्रमें चढ़ाकर भेज दें। चिरप्रबोधान्न सम्भावितमस्माभिरद्य धर्मासनमध्यासितुम् । यत्प्रत्यवेक्षितं पौरकार्यमार्येण तत्पत्रमारोप्य दीयतमिति'।
यहाँ 'चिरप्रबोध' कारण है और 'धर्मासनपर आसीन होनेकी अक्षमता' कार्य है।
मुद्रिकाको उपालम्भ देता हुआ दुष्यन्त कहता है, कि मुद्रिके, तुम्हारा पुण्य भी मेरे ही समान अवश्य न्यून है, यह फलसे ही ज्ञात होता है । यहाँ फल-हाथसे गिरजाना कारण है और पुण्यकी न्यूनता कार्य है । अतः कार्यकारण भाव सम्बन्धसे कविने राजाकी विभिन्न भावनाओंका चित्रण किया है।
तव सुचरितमङ्गलीयं नूनं प्रतनु ममेव विभाव्यते फलेन ।
अरुणनखमनोहरासु तस्याश्च्युतमसि लब्धपदं यदङ्गलीषु॥
किसी अप्रत्यक्ष सत्ताद्वारा विदूषकके आक्रान्त होनेपर दुष्यन्त विचार करता है कि प्रतिदिन प्रमादजन्य त्रुटियोंको पूर्णतया अवगत करना कठिन है । यहाँ प्रमादद्वारा स्खलन होना कारण है और इस कारणसे उत्पन्न त्रुटियाँ कार्य हैं ।
___ इन्द्रकी सहायताकर स्वर्गसे लौटते समय दुष्यन्तकी मातलि प्रशंसा करता है। वह कहता है
सुखपरस्य हरेरुभयैः कृतं त्रिदिवमुद्धृतदानवकण्टकम् ।
तव शरैरधुना नतपर्वभिः पुरुषकेसरिणश्च पुरा नखैः ॥ यहाँ 'त्रिदिवमुद्धृतदानवकण्टकम्' कार्य है और 'तव शरैः' तथा 'पुरुषकेसरिणः नखः कारण हैं । उक्त दोनों कारणोंमें कारणका लक्षण विद्यमान है।
__ स्वर्गसे वापस आता हुआ राजा दुष्यन्तका रथ पयोधरोंके बीचसे आ रहा है, जलकणोंने उसके चक्रके प्रान्तभागको आर्द्र कर दिया है । इस प्रसंगमें 'शीकर' कारण और मेघपथका बोध कार्य है।
१. वही षष्ठ अङ्क ७वें पद्य का पश्चात्वर्ती गद्य, पृ० १५० ; २. वही ६।११; ३. वही ७३;