Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
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दूसरा तर्क यह है कि यहाँपर जो ज्ञान अज्ञान है, वह ज्ञान प्रथम ज्ञानका बोध कराने वाला नहीं हो सकता और यदि ऐसा नहीं मानते तो अनन्त अनवस्था दोष रूपी लता फैलकर समस्त आकाशको व्याप्त कर लेगी। इस कारण पदार्थका ज्ञान अप्रत्यक्ष ठहरा और उसके अप्रत्यक्ष होनेपर पदार्थकी भी वही स्थिति होगी। यदि अप्रत्यक्ष ज्ञानसे भी विषयका निश्चय स्वीकार करते हैं तो दूसरेका जाना हुआ विषय भी अपनेको विदित हो जायगा। इस प्रकार जीव अपने शरीरमें अपने ज्ञानसे प्रत्यक्ष सिद्ध है और अन्यके शरीरमें अनुमानसे सिद्ध है । अतः एव तत्त्वोपप्लववादी द्वारा निरसन किया गया जीव स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है।
इस प्रकार तत्त्वोपप्लववादीने जीव, तत्त्वके उपप्लवके लिए जो युक्तियाँ दी हैं तथा जिन व्याघातक कारणोंका निरूपण किया है, उन सबका निरसन जीव तत्त्वकी सिद्धिसे हो जाता है । वस्तुतः तत्त्वोपप्लववादी चार्वाक प्रमेय तत्त्वमें जीवको और प्रमाण तत्त्वमें अनुमानको प्रमुखता देता है । वीरनन्दीने चन्द्रप्रभ चरितमें पूर्व पक्षके पश्चात् उत्तर पक्षमें जिन तर्कोको उपस्थित किया है, उन तर्कोमें जीव तत्त्व सिद्धि सम्बन्धी तर्क हो प्रमुख हैं । इस स्थलके अध्ययनसे सामान्यतः भूतवादी चार्वाककी युक्तियां ही प्रतीत होती हैं, पर संदर्भ के अन्तमें वीरनन्दीने प्रमेय और प्रमाण तत्त्वकी सिद्धिके लिए जिन युक्तियोंका निरूपण किया है, उनका सम्बन्ध तत्वोप लववादोके साथ घटित होता है और पूर्व पक्षमें उठाये गये समस्त विकल्पोंका समाधान भी प्राप्त होता है।
हम यहाँ वीरनन्दी द्वारा प्रस्तुत जीव सिद्धि-सम्बन्धी युक्तियोंको उपस्थित करने के अनन्तर तत्त्वोपप्लववादीके अन्य तर्कोका चन्द्रप्रभको शैलोमें ही आलोचना प्रस्तुत करेंगे । बताया गया है कि गर्भ में आनेसे लेकर मरण पर्यन्त स्वानुभव द्वारा जीवका अस्तित्व माना भी जा सकता है ।२ पर गर्भ में आनेके पूर्व और मरणके पश्चात् किस प्रमाणसे जीवका अस्तिस्व सिद्ध होगा। जीवके अभावमें अजीवादि तत्त्व भी उपप्लुत हो जायेंगे । यह तर्क भी असमीचीन है । भौतिक जगत्में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होनेवाले वायु, अग्नि और जल-आदि जिम प्रकार अनादि अनन्त हैं, उसी प्रकार जीव भी अनादि अनन्त है। यह स्वयं सिद्ध है कि नित्य वस्तुका कोई कारण नहीं होता। नित्यकी कारण हीनता किसी हेतु या प्रमाणके द्वारा असिद्ध नहीं की जा सकती है। क्योंकि इस कारणहीनताको असिद्ध सिद्ध करनेवाला कोई हेतु या प्रमाण नहीं है ।
हम तत्त्वोपप्लववादीसे यह जानना चाहेंगे कि जीवादि तत्त्वोंका उपप्लव कैसे करते हो ? प्रमाणके द्वारा या बिना प्रमाणके द्वारा । प्रमाणसे तो उपप्लव हो नहीं सकता, क्योंकि प्रमाण तो तत्त्वोंका सद्भाव ही सिद्ध करता है। प्रमाणके अभावमें किसी वस्तुका सद्भाव या असद्भाव माना नहीं जा सकता। अतएव वायु आदि तत्त्वोंको जीवका कारण माननेवाला देहवादी चार्वाक भी तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकके समान असमीचीन है। यहाँ यह विकल्प होता है कि वायु आदि तत्त्व मिलकर जीवका कारण होते हैं या पृथक्-पृथक् ? प्रथम पक्ष १. तस्मात्स्वरवेदने सिद्धे प्रत्यक्ष सति युक्तितः, प्रत्यक्षबाधा न भवेत् कथं नास्तित्ववादिनाम् ।
वही २/६१ २. चन्द्रप्रभचरितम् २/६२-६३
३. वही २६४