Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
३३ भिन्न माना जा सकता है न अभिन्न हो । पर्याय पर्यायीका व्यपदेश होनेसे कथंचित् भिन्नता है और पर्यायीमें ही सुख-दुःखादि पर्यायोंके रहनेसे कञ्चित् अभिन्नता है।
वीरनन्दीने तत्त्वोपप्लववादका निरसन करते हुए जीवसिद्धिके प्रकरणमें आत्माको स्वदेह प्रमाण, कर्ता, भोक्ता, चैतन्य एवं प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध माना है । इसी प्रसंगमें उन्होंने कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि भावोंकी सिद्धि की है। जो आत्माको चित्सन्तति मात्र मानते हैं, उनका भी समालोचन करते हुए चैतन्य ज्ञानदर्शन रूप जीवकी सिद्धि की है । बताया गया है
तस्मादनादिनिधनः स्थितो देहप्रमाणकः,
कर्ता भोक्ता चिदाकारः सिद्धो जीवः प्रमाणतः ।। जीवके सिद्ध होने पर जीवतत्त्वकी अपेक्षा रखने वाले अजीवादि तत्त्व भी प्रमाण सिद्ध है, क्योंकि इनके बिना बन्ध मोक्षादिकी व्यवस्था बन ही नहीं सकती है। वीरनन्दीने पूर्णतः जीव तत्त्वकी सिद्धिके पश्चात् अजीव आदि तत्त्वोंको सिद्ध करते हुए तत्त्वोपप्लवको मिथ्या या भ्रम बतलाया है । यथा
येऽप्यजीवादयो भावास्तदपेक्षा व्यवस्थिताः,
तेऽपि संप्रति संसिद्धास्तन्न तत्त्वमुपलुतम् ।। प्रमाण तत्त्वके निरसनार्थ जो युक्तियां दी गयी है, वे भी निःसार है, क्योंकि स्याद्वाददर्शनमें ज्ञानको प्रमाणता न निर्दोष-कारण-समूहके उत्पन्न होनेसे न बाधाओंके उत्पन्न होनेके कारण है, न प्रवृत्ति-सामर्थ्यके द्वारा ही है और न अविसंवादिस्वके कारण ही है, यतः ६। चारों पक्षोंमें पूर्वोक्त दोष, जिनका निर्देश तत्त्वोपप्लववादीने किया है, आते हैं, पर स्याद्वाद दर्शनमें प्रामाण्यकी व्यवस्था बाधकोंकी संभावनाका सुनिश्चित अभाव होनेसे ही घटित होती है। समस्त देशों और समस्त कालोंके पुरुषोंकी अपेक्षा अभ्यस्त दशामें उत्पन्न माणमें बाधकोंकी संभावनाका अभाव स्वयं ही प्रतीत होता है, जिस प्रकार प्रमाणका स्वरूप अपनेमें निश्चित प्रतीत होता है, उसी प्रकार अभ्यस्त विषयमें प्रामाण्यमें बाधकोंकी संभावनाका अभाव भी निश्चित रूपसे प्रतीत होने लगता है।
- अनभ्यस्त दशामें उत्पन्न हुए ज्ञानमें प्रमाणता परके द्वारा बाधकोंकी सम्भावनाका निराकरण करने पर सुनिश्चित होती है । स्याद्वाद-दर्शन में वस्तु-व्यवस्था और प्रमाण-व्यवस्था अनेक दृष्टिकोणों द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे निरूपित है । अत एव अन्योन्याश्रय अनवस्था अतिप्रसंग एवं चक्रक आदि दोष नहीं आते ।
तत्त्वोपप्लववादी आदि समस्त वस्तुओंके जापक प्रमाण-विशेषोंका अभाव प्रत्यक्षसे करता है या अनुमानसे ? प्रथम पक्ष असमीचीन है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाणको स्वीकार न करनेसे अतिप्रसंग दोष आयेगा। जिसने प्रमाण तत्त्व स्वीकार ही नहीं किया, उसके यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाणकी चर्चा करना गगनारविन्द की गन्ध-चर्चाके समान निरर्थक है।
१. वही, २/८८
२. वही, २/८९