Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
अनुमानसे भी वह ज्ञापक प्रमाण- विशेषोंका अभाव सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि तत्त्वोपप्लववादीके यहां अनुमान प्रमाणका अस्तित्व है ही नहीं ।
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यदि स्वयं सिद्ध प्रमाण द्वारा वस्तुकी व्यवस्था मानी जाय तो समस्त प्रमाण सभी वादियों के अपने-अपने इष्ट तत्त्वके भी साधक हो जायेंगे । अतः तत्त्वोपप्लवकी सिद्धि किसी भी प्रकार संभव नहीं है । यह सर्वमान्य और अनुभूत सिद्धान्त है कि किसी भी प्रकार के ज्ञानको प्रमाणभूत मानकर ही प्रवृत्ति-निवृत्ति संभव होती है । जो समस्त प्रमाणोंका उपप्लव स्वीकार करता है, उसके यहां उसका स्वयंका अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता है । अतः प्रमाण - प्रमेयकी व्यवस्था मानना लोक व्यवहारके निर्वाहकी दृष्टिसे भी आवश्यक है ।
आचार्य वीरनन्दीने अनुभव और युक्तियोंसे जीव तत्त्वकी सिद्धि कर उससे सम्बद्ध अन्य अजीवादि तत्त्व एवं तत्त्वोंके प्रतिपादक और साधक प्रमाणोंकी सिद्धि की है । तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकने जो पूर्व पक्ष उपस्थित किया था, उसकी सम्यक् आलोचना कर प्रमाणप्रमेयक व्यवस्था प्रतिपादित की है ।