Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस पद्यमें 'आर्तत्राणाय वः शस्त्र' कारण है और 'साधुकृतसन्धानं सायकम् प्रतिसंहर' कार्य है अथवा पद्यका उत्तराद्ध पूर्वाद्ध का कारण है । इस प्रकार कारणके गम्य होने पर भी पद्य में कार्य कारणभाव समाहित है ।
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दुष्यन्तको उसके भुजपराक्रमरूप कारण द्वारा आश्रमके रक्षारूप कार्यका परिज्ञान तपस्वी कराते हुए कहते हैं
रम्यास्तपोधनानां प्रतिहतविघ्नाः क्रियाः समवलोक्य । ज्ञास्यसि कियद्भुजो मे रक्षति मौर्वीकिणांक इति ॥ भुजपराक्रमरूप कारण रक्षारूप कार्यका पूर्ववर्तित्व और अनन्यथा सिद्ध है । अतः इसमें न्यायसम्मत कार्य कारणभावकी परिभाषा भी घटित होती है ।
आश्रम परिचय प्रसंग में महाकविने चञ्चल लहर रूपी कारण द्वारा वृक्षोंके मूल प्रक्षालनरूप कार्यका; धूमरूप कारण द्वारा किसलयोंकी कान्तिके नष्ट होने रूप कार्यका एवं कुशहीनतारूप कारणसे मृगोंके निर्भय विचरण रूप कार्यका सम्पन्न होना बतलाया है । यहाँ पृथक्-पृथक् तीन कारणों द्वारा पृथक्-पृथक् तीन कार्योंकी उत्पत्ति प्रदर्शित की गयी है । इस कार्यकारणभावसे कविने आश्रमका स्वरूप उपस्थित किया है । यथा
कुल्याम्भोभिः पवनचपलैः शाखिनो धौतमूला भिन्नो रागः किसलयरुचामाज्यधूमोद्गमेन । एते चार्वागुपवन भुविच्छिन्नदर्भाङ्कुरायां नष्टाशङ्का हरिणशिशवो मन्दमन्दं चरन्ति ॥
भ्रमरके कृतकृत्यरूप कार्यका विवेचन उसके द्वारा शकुन्तलाके चुम्बन, अधरपान एवं कर्णके पास गुञ्जनरूपी कारणों द्वारा किया है । इस कार्यकारण भावमें भ्रमर पर नायकका आरोप कर उसके कृतार्थ होनेकी चर्चा की गयी है ।
१. वही १।१३ ३. १।२४
चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमती रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः । करौ व्याघुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरम् वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ॥ ३
शकुन्तलाके प्रथम साक्षात्कारके समय राजा दुष्यन्त के मनमें यह आशङ्का उत्पन्न होती है कि इसने जीवन पर्यन्त अवधिके लिए ब्रह्मचर्य धारण कर लिया है अथवा निश्चित समयकी अवधि के लिए ? अनसूया और प्रियंवदाके वार्तालापसे उसकी उक्त शंका निराकृत हो जाती है । और राजा यह समझ लेता है कि अभी शकुन्तलाका विवाह होना अवशिष्ट है । अब उसके मन में यह सन्देह रह जाता है कि उसका विवाह किसी क्षत्रिय राजासे होगा या तपस्वीसे । प्रियंवदा "गुरोः पुनरस्या अनुरूपवरप्रदाने संकल्प : " वाक्यसे उक्त सन्देहके दूर होनेपर राजा मनमें चिन्तन करता है । राजा दुष्यन्तका यह चिन्तन कारण- कार्यभावसे युक्त है ।
२ . वही १।१५
४. १।१२ के पूर्वका गद्यखण्ड
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