Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
असमीचीन है, यतः तत्त्वाभावमें जड़ तत्वोंका अस्तित्व ही संभव नहीं । जब तत्त्वोंका उपप्लव माना जाता है तो जड़ तत्त्वोंका भी उपप्लव मानना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि जड़ तत्त्वोंसे चेतन जीवकी उत्पति संभव नहीं। प्रसिद्ध है कि सजातीयसे सजातीयकी उत्पत्ति होती है, विजातीय की नहीं' । अन्यथा जलसे पृथ्वीको उत्पत्ति और पृथ्वीसे वायुकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी। यदि वायु आदि तत्त्वोंको पृथक्-पृथक् जीवोंकी उत्पत्तिका कारण मानते हैं तो भूतोंके समान जीवोंकी संख्या भी हो जायगी।
___ यदि यह माना जाय कि भूत तत्त्व भी उपप्लुत है, अतः चेतनजीवके उपादान कारण नहीं सहकारी कारण है ।२ यह तर्क भी निराधार है क्योंकि उपादानके अभावमें केवल सहकारी कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतएव तत्त्वोपप्लववादीका 'जीवो नास्ति, अनुपलब्धेः।" यह कथन असमीचीन है । यतः उपलब्धि हेतु द्वारा स्वसंवेदन ज्ञानरूप जीवकी सिद्धि होती है । जो यह कहा गया था कि "जीवाभावे अजीवः कथं वक्तुं युज्यते, जीवाजीवयोः सापेक्षत्वात्"। यह कथन भी तत्त्वीपप्लववादीके लिए उचित नहीं । जो तत्त्वोंका उपप्लव स्वीकार करता है, उसके यहाँ हेतु या अनुमानकी चर्चा करना असंगत है ।
___ आत्मा और पृथ्वी आदि तत्त्वोंकी एकता भी सिद्ध नहीं की जा सकती । आत्मा चेतन है और भूतादि तत्त्व अचेतन हैं। दोनों पृथक्-पृथक् प्रतिभासित होते हैं और दोनोंके लक्षण भी भिन्न हैं।
___अतएव तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकने जो जीव तत्त्वका अभाव सिद्ध किया था और व्याघातक तर्क सिद्धान्तके आधारपर अजीवादि तत्त्वोंका अभाव प्रतिपादित किया था, वह सर्वथा असमोचीन है, क्योंकि स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा जीवतत्त्वकी सिद्धि की जा चुकी है । अब प्रश्न यह है कि जीव एक है या अनेक ? इन विकल्पोंके उत्तरमैं तत्त्ववादी जैन अनेक जीवोंका अस्तित्व स्वीकार करता है। सुख दुःखादि परिणाम जीवसे सर्वथा भिन्न नहीं हैं, क्योंकि यदि ये पर्याय जीवसे भिन्न होते, तो ये जीवके हैं-इस प्रकारके सम्बन्धकी कल्पना नहीं हो सकती थी। यदि यह माना जाय कि भेद रहनेपर भी समवाय सम्बन्धके निमित्तसे उक्त कल्पना सम्भव हो सकती है तो यह भी ठीक नहीं । यतः नित्य उपकारी नहीं होता और सब प्रकारके सम्बन्धोंको स्थिति उपकारके आधारपर ही पायी जाती है। आचार्य वीरनन्दीने उक्त विचारको निम्न प्रकार उपस्थित किया हैनित्यस्यानुपकारित्वात्समवायो न युज्यते । उपकाराश्रया सर्वा सम्बन्धसमवस्थितिः ॥ उपकारोऽपि भिन्नत्वात्तस्येति कथमुच्यते । उपकारान्तरापेक्षा विदध्यादनवस्थितिम् ॥
अतएव समवाय-सम्बन्धकी कल्पना भी अयुक्त है ।
यदि नित्यको उपकारी माना जाय तो वह उपकार भिन्न है या अभिन्न ? भिन्न विकल्प स्वीकार करजेपर सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। यदि किसी अन्य प्रकारकी अपेक्षा करके सम्बन्ध स्थापित किया जाय तो अनन्त सम्बन्धोंका जाल बिछ जानेसे अनवस्था दोष आयेगा
और कहीं भी व्यवस्था नहीं हो पायेगी। अतएव जीवको सुख-दुःखादि पर्यायोंसे सर्वथा न १. चन्द्रप्रभचरितम्, २/६६
२. वही २/६८ ३. वही २/७३
४. वही २/७७-७८