Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैम न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
यिकोंके यहां तो अभाव प्रत्यक्ष ही है और समवायको पदार्थ माना गया है । अतः इन दोनोंके संयोगसे विशेषणता सन्निकर्ष बन जायगा । इसमें भी अभाव प्रत्यक्ष में अनुपलब्धिको सहकारी कारण माना गया है और अभावका प्रत्यक्ष विशेषणता सन्निकर्षसे होता है । तथ्य यह है कि इन्द्रिय और विशेषता जन्य अभाव प्रत्यक्षमें योग्यतानुपलब्धि सहकारी कारण है । तथा हि भूतल आदि अधिकरणमें घटादिका प्रत्यक्षात्मक ज्ञान होनेपर घटाभाव आदिका प्रत्यक्ष नहीं होता। इससे यह सिद्ध हुआ कि अभावके उपलम्भ-प्रत्यक्ष में प्रतियोगीका उपलम्भाभावउपलब्धि अभाव अर्थात् अनुपलब्धि-प्रत्यक्ष न होना सहकारी कारण है । आशय यह कि जहां प्रतियोगीका प्रत्यक्ष नहीं होगा वहीं पर उसके अभावका प्रत्यक्ष होता है। ननुप्रतियोगीका उपलम्भाभाव यदि प्रतियोगीके अभाव प्रत्यक्षमें कारण है तो जलादि परमाणुमें पृथ्वीत्वका उपलम्भ-प्रत्यक्ष नहीं होता है क्योंकि वहाँ जलादि परमाणुमें पृथ्वीत्वोपलम्भाभाव है । अतः पृथ्वीत्वाभावका प्रत्यक्ष होता है ।
प्रतियोगी उपलम्भाभाव में योग्यता भी अपेक्षित है। अर्थात् योग्यता विशिष्ट जो प्रतियोगी उपलम्भाभाव वही प्रतियोगीके अभाव प्रत्यक्षमें कारण है। जिसका अभाव किया जाता है वह उसका प्रतियोगी होता है । अतः अभावके ग्रहणमें योग्यता विशेष कारण है और यह योग्यता उपालम्भाभावमें रहने वाला तादृश प्रतियोगित्वात्मक धर्म है। अतएव अभावका ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव है। वायुमें रूपका अभाव, पाषाणमें सुगन्धका अभाव, गुड़में तिक्त रसका अभाव, श्रोत्रमें शब्दाभाव, आत्मामें सुखाभाव आदिके ग्रहण करने में तत्सम्बन्धी प्रतियोगियोंका प्रत्यक्ष होता है क्योंकि पूर्वोक्त अभावोंके प्रत्यक्षका अपादान-आरोप हो सकता है. क्योंकि इन अभावोंके प्रतियोगी जो रूपादि है उनके उपलम्भाभावमें-"प्रतियोगी सत्त्व प्रसञ्जन प्रसञ्जित प्रतियोगिकत्व रूप योग्यता है । अतः वायौ यदि रूपं स्यात् तहि चक्षुष उपलभ्येत ऐसा उपादान हो सकता है। संसर्गाभाव के प्रत्यक्षमें प्रतियोगीकी प्रत्यक्ष योग्यता अपेक्षित है और अन्योन्याभावके प्रत्यक्षमें तो अधिकरणकी योग्यता आवश्यक है।
___ सन्निकर्षके प्रत्यक्ष ज्ञानकी अपेक्षासे दो भेद हैं-लौकिक और अलौकिक । लौकिक सन्निकर्ष पूर्वोक्त छः प्रकारका होता है और अलौकिक सन्निकर्ष तीन प्रकारका है
अलौकिकस्तु व्यापारस्त्रिविधः परिकीर्तितः ।
सामान्यलक्षणो ज्ञानलक्षणो योगजस्तथा ॥' अर्थात् अलौकिक व्यापार रूप सन्निकर्ष तीन प्रकारका है-(१) सामान्य लक्षण (२) ज्ञान लक्षण और (३) योगज । सामान्य लक्षण शब्दका अर्थ है कि सामान्य घटत्वादि जाति और घटादि व्यक्ति-ये दोनों जिसके स्वरूप हों उससे सामान्य स्वरूप प्रत्यासत्ति रूप अर्थका लाभ होता है और वह सामान्य स्वरूप सम्बन्ध इन्द्रिय सम्बद्ध विशेष्यक अयं घटः इत्याकारक ज्ञान उसमें प्रकारीभूत समझना चाहिए। आशय यह है कि पूर्ववर्ती घटके साथ चक्षु संयोग होनेके अनन्तर घट घटत्वे इत्याकारक निर्विकल्पक ज्ञान होता है । उसके
१. न्याय सिद्धान्त मुक्तावली-न्यायाचार्य पं. श्री ज्वालाप्रसाद गौड़ ।
प्रकाशक-सरजू देवी, १८५ गणेश महाल, वाराणसी, प्रथम संस्करण १९५८ । पृ०-२५०, श्लोक संख्या-६३ ।