Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांस
घटका कर्ता कुम्भकार, पटका कुविन्द और रथका कर्ता बढ़ईको न माना जाय, तो लोक विरुद्ध कथन हो जायगा। लोकमें उनका कर्तृत्व परम्परा निमित्त की अपेक्षा ही संगत होता है।
___अभिप्राय यह है कि संसारके सभी पदार्थ अपने-अपने भावके कर्ता हैं । पर भावका कर्ता कोई पदार्थ नहीं है। कुम्भकार घट बनाने रूप अपनी क्रियाका कर्ता है । व्यवहार में कुम्भकारको जो घटका कर्ता कहा जाता है, वह केवल उपचार मात्र है । घट बनने रूप क्रियाका कर्ता घट है । घटकी बनने रूप क्रियामें कुम्भकार सहायक निमित्त है । इस प्रकार सहायक निमित्तको ही उपचारसे का कहा जाता है।
कत के दो भेद हैं-(१) वास्तविक कर्ता और (२) उपचरित कर्ता । क्रियाका उपादान ही वास्तविक कर्ता है। अतः कोई भी क्रिया वास्तविक कर्ताके बिना सम्भव नहीं है । उपचरित कर्ताके लिये यह नियम नहीं है । यथा-घट रूप कार्य के सम्पादन में उपचरित कर्ताको आवश्यकता है, पर नदीके बहने रूप कार्यमें उपचरित कर्ताकी आवश्यकता नहीं है ।
संक्षेपमें आत्माको ही रागादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म और नोकर्म शरीरादिका कर्ता मानने के साथ स्वशुद्ध चैतन्य भावोंका भी कर्ता माना गया है। आत्माकी इस कर्तृत्व शक्तिका विवेचन जैन दर्शनमें बहुत विस्तारपूर्वक किया गया है और विभिन्न नय प्रक्रिया द्वारा आत्माकी कर्तृत्व शक्तिका निरूपण किया गया है । समीक्षा
जैन दर्शनमें आत्माको कर्ता कहा गया है। पर सांख्य दर्शनमें प्रकृति या प्रधानको कर्ना और आत्मा या पुरुषको फलभोक्ता कहा गया है। इस दर्शनके अनुसार आत्मा केवल कर्तृत्व शक्तिका साक्षी है । परिणामवादकी सिद्धिके साथ ही कर्तत्व भी सिद्ध हो जाता है । यह आत्मा कूटस्थ नित्य है, जो कुछ भी परिवर्तन होता है, वह प्रधान या प्रकृतिमें । पुरुष न कभी बद्ध होता है और न मुक्त । बन्धन और मुक्ति रूप जितने परिणाम हैं, वे सब प्रकृतिके आश्रित हैं, आत्माके आश्रित नहीं। आत्मा नित्य है। जन्म मरणादि जितने भी परिणाम होते हैं, वे उससे भिन्न हैं । अतएव सांख्य दर्शन आत्मा या पुरुषको अपरिणामी मानता है । प्रकृति ही बद्ध होती है और प्रकृति ही मुक्त होती है, इस कथनमें बद्ध और मुक्त प्रकृतिके अतिरिक्त किससे मानी जाती है । प्रकृति किसी अन्य तत्त्वसे तो बद्ध नहीं हो सकती। यदि प्रकृति स्वयं ही बद्ध होती है और स्वयं ही मुक्त होती है तो बन्धन और मुक्तिमें कोई अन्तर नहीं होगा। क्योंकि प्रकृति सर्वदा प्रकृति है, वह जैसी है, वैसी ही रहेगी। उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। क्योंकि उसमें भेद डालनेवाला अन्य कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता।
यदि यह माना जाय, कि पुरुष प्रकृति के परिवर्तनमें कारण है, तो भी समस्याका समाधान सम्भव नहीं है । पुरुष सर्वदा प्रकृतिके सम्मुख रहता है । यदि वह निरन्तर एक रूप है, तो प्रकृति भी एक रूप रहेगी । यदि उसमें परिवर्तन होता है तो प्रकृतिमें भी परिवर्तन होगा। ऐसा सम्भव नहीं कि पुरुष तो सदैव एक रूप रहे और प्रकृतिमें परिवर्तन होता रहे।