Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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हाल है। आज भारत के बाहर कहीं कहीं विक्रम की चतुर्थ शताब्दि के बाद कोई ग्रन्थ मिलता, पर भारत में जो कुछ साहित्य मिलता है वह विक्रम की आठवीं, नवीं शताब्दि के पीछे का मिलता है ।
४ - भारतीय साहित्य का सृजन:
भरत के ऋषि-मुनियों ने साहित्य सृजन में कभी कमी नहीं की । उन्होंने अपने भक्त लोगों को उपदेश दे देकर इतना ढेर लगा दिया था कि उतना ढेर घास का भी शायद ही मिलता हो । गृहस्थ लोग भी उन त्याग मूर्त्ति आचायों का उपदेश शिरोघाय्यं कर अपने अथक परिश्रम से उपार्जित लक्ष्मी की ऐसे परमार्थ के कार्य निमित्त लगा अपने मानव-भव को सुफल बनाने में किसी प्रकार की मी नहीं रखते थे । कारण, इस कलि-काल में जिन मन्दिर-मूर्ति एवं आगम ही शासन के आधार समझे जाते हैं। दूसरा एक कारण यह मी था कि कोई भी भाचार्य कोई भी आगम व्याख्यान में वांचना प्रारम्भ करते उसका महोत्सव कर गृहस्थ लोग ज्ञान-पूजा किया करते थे। जिसमें भी श्री भगवतीजी जैसा आगम का तो जैन समाज में और भी विशेष प्रभाव है। ऐसे बहुत से उदाहरण जैन साहित्य में मिलते हैं कि अमुक भक्त ने श्री भगवती सूत्र बँचाया, जिसकी हीरा, माणिक्य, पन्ना, मोतियों से पूजा की ओर ३६००० प्रश्नों की ३६००० स्वर्ण मुद्रिकाओं से पूजा की। इस कार्य्यं से आये हुए द्रव्य से पुनः आगम लिखाया जाता था । इससे पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय जैन समाज की आगमों पर तिनी भक्ति एवं पूज्यभाव था । इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि साहित्य लिखवाने में जितना हिस्सा जैनों का था उतना दूसरो का शायद ही था । अतः म्लेच्छ विधर्मियों के दुष्टता पूर्ण साहित्य को हानि पहुँचाने पर भी उनका सर्वथा अन्त नहीं हुआ । बचा हुआ साहित्य भी कम न था किन्तु वह अवशेष साहित्य ऐसे लोगों के हाथ में पड़ गया कि उनके पीछे उनकी सन्तान ऐसी सपूत !) निकली कि जिसने अपनी विषयबाशन ओं के पोषणार्थं उस अमूल्य साहित्य निधि को पानी के मूल्य में विदेशियों के हाथ में बेच दिया जो आज भी उन लोगों के पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। नमूने के तौर पर कुछ पुस्तकालयों का ब्यौरा निम्न लिख दिया जाता है:
१ - लंदन में करीब १५०० बड़े पुस्तकालय हैं, जिसमें एक पुस्तकालय में कोई १५०० पुस्तकें हस्तलिखित हैं । उनमें अधिक पुस्तकें संस्कृत प्राकृत और भारत से ही गई हुई हैं। यह तो केवल एक पुस्तकालय की ही बात है, विचारिये शेष १४९९ पुस्तकालयों में कितनी पुस्तकें होंगी ?
२ - जर्मन में कोई ५००० पुस्तकालय हैं। जिसमें बर्लिन में ही बहुत से पुस्तकालय हैं एवं उसके एक पुस्तकालय में ही १२०० पुस्तकें हस्तलिखित हैं । तब ५००० पुस्तकालयों में कितनी पुस्तकें होंगी और उन पुस्तकों में विशेष भारत से गई हुई हस्तलिखित पुस्तकें कितनी होंगी ?
३- अमरका के वाशिंगटन नगर में ही ५०० पुस्तकालय हैं, जिसमें लगभग ४०००००० पुस्तकों का संग्रह है। और उसमें करीब २०००० पुस्तकें हस्त लिखित हैं । विचारिये कि भारत से गई हुई कितनी होंगी ?
४ - [फान्स में ११११ बड़े पुस्तकालय हैं। जिसमें पेरिश का एक विवलियोथिक नामक पुस्तकालय में ४०००००० पुस्तकें हैं, उनमें १२००० पुस्तकें हस्तलिखित हैं। संस्कृत एवं प्राकृत भाषा की हैं जो प्रायः सब की सब भारत से ही हुई हैं।
५- रूस मे १५०० बड़े पुस्तकालय हैं। जिसमें एक राष्ट्रीय पुस्तकालय में ही ४०००००० पुस्तकें हैं । उनमें मी २२००० पुस्तकें संस्कृत एवं प्राकृत भाषा की भारत से गई हुई पुस्तकें हैं ।
६ - इटली में के ई ४५०० पुस्तकालय हैं । उनमें भी लाखों पुस्तकों का संग्रह है । कोई ६०००० १ज़ार पुस्तकें संस्कृत व प्राकृत भाषा की प्रायः सब भारत से ही गई हुई हैं।
यह तो एक नमूने के तौर पर बतलाया गया है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी पाश्चात्य देशों में शायद ही कोई - ऐसा राष्ट्र हो कि जहाँ के पुस्तकालयों में भारतीय पुस्तकों का संग्रह न हो ! यह प्रवृत्ति केवल अंग्रेजों के भारत में आने
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