Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ।
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
समझी पर जब जाकर देखा तो वास्तव में संघपति सारंग ही निकला। उस समय जता को सूरिजी के वचन याद आये । श्रीसंघ संघपति सारंग को वधाकर नगर में ले गया और आये हुये संघ ने शासनाधीश भगवान महावीर की यात्रा कर अपने पापों का प्रक्षालन किया।
बाद सारंग अपने घर पर आया और संघ का अच्छा स्वागत कर उनको एक एक सेर सोने की पहरामणी देकर विसर्जन किया । बस, आज तो उपकेशपुर के घर २ में सारंग की पुन्यवानी की ही बातें हो रही हैं । इधर कई धनाढ्यों के कन्यायें बड़ी हो रही थीं जिसका सारंग से विवाह के लिये आग्रह किया जवाब में सारंग ने कहा ऐसे प्रस्ताव तो रास्ते में भी बहुत आये थे पर मैंने स्वीकार नहीं किये क्योंकि मेरी इच्छा शादी करने की नहीं है जैनशास्त्रानुसार जिस जीव के घेद् मोहनिय कर्म का प्रबल्य उदय होता है उसको ही काम विकार सताता है पर जिस जीव ने पूर्वभव में वेदमोहनीय कर्म नहीं वाँधा है तथा बाँधे हुये का क्षथ तथा क्षयोपशम करदिया है, उनके सामने कितने ही विषय विकार के साधन खड़े हो पर उसके दिल में कभी बिकार पैदा ही नहीं होता है । उसके अन्दर सारंग भी एक था। माता पिता वगैरह सम्वन्धियों ने बहुत कोशीश की पर सारंग ने किसी एक की भी नहीं सुनी । अहा-हा इस प्रकार जवानी और सम्पति जिसमें ब्रह्मचर्य व्रत पालना कितना दुःकर है ? ऐसे नर बहुत कम होते हैं जैसा कि सारंग है।
सारंग ने अपने माता पिता और भाइयों को कह दिया कि सुवर्ण का खजाना मेरे पास है जिसको जितना लाभ उठाना हो वह खुशी से उठावे । कारण, प्रत्येक वस्तु की स्थिती हुआ करती है और वह अपनी स्थिती से अधिक समय तक ठहर नहीं सकती है अतः इसका जितना सदुपयोग किया जाय उतना ही अच्छा है । शाह जैता ने उपकेशपुर में भगवान महावीर देव का एक आलीशान मंदिर बनाना शुरू कर दिया और उस मंदिर के योग्य १०४ अंगुल प्रमाण सुवर्ण की मूर्ती बनाने का निश्चय कर लिया। इतना ही क्यों पर चतुर शिल्पकारों को बुला कर मूर्ति तैयार भी करवा ली।
जब तक मंदिर तैयार हो वहां तक श्री शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा निमित्त एक विगट संघ निकालने का भी निश्चय कर लिया और इस कार्य को प्रारंभ भी कर दिया तीर्थयात्रा का संघ के साथ साधर्मी भाइयों की सहायता, गरीबों का उद्धार और सात क्षेत्र में पुष्कल द्रब्य खर्चना भी शुरू कर किया अर्थात् सारंग की तरफ से द्रव्य की खुले दिल से छूट थी । सारंग जानता था कि मेरी स्थिति तो वह थी कि पूरी पेट की पूजा भी नहीं होती थी । जब किसी देव गुरु धर्म के प्रभाव से सहज ही में अन्तराय तुट गई है तो इसमें जो सदुपयोग बन जाय वही अच्छा है । इस प्रकार सारंग तथा सारंग के सम्बन्धी लोगों ने जितना चाहा उतना लाभ उठाया । जिसमें अधिक लक्ष साधर्मी भाइयों की ओर रखा।
अत. शाह जैता के संघ पतित्व में संघ का आयोजन बड़े ही समारोह से हुआ। इस संघ में साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविकायों की संख्या विशेष थी । प्रबन्ध भी अच्छा था । खर्च के लिए जिसके पास सुवर्ण सिद्धि हो फिर कमी किस बात की। संघ यात्रा कर वापिस आनन्द से उपकेशपुर लौट आया।
इधर आचार्य देवगुप्तसूरि का पुनः उपकेशपुर की और पधारना हो रहा था। शाह जैता और सारंग ने सूरिजी का आगमन सुनकर बड़ा ही हर्ष मनाया और श्रीसंघ के साथ सूरिजी का नगर प्रवेश बड़े ही समारोह से करवाया । सूरिजी ने सारंग का सब हाल सुना तथा शाह जैता ने जाकर सूरिजी के चरणाविद में शिर झुका कर कहा पूज्यवर ! आपका वचन सिद्ध हो गया है और सारंग बड़ा ही भाग्यशाली ६८६
[ सारंग का उपकेशपुर का संघ
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