Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 976
________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६९८-७१० सूरिजी-इस द्रव्य को श्राप जिनमन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव वगैरह सुकृत कार्यों में लगा सकते हो और आपके कराये इस महोत्सव के साथ हम उन दोनों मुनियों को आपकी यादगीरी में पण्डित पद दे सकते हैं। क्षत्रियों ने सूरिजी का कहना शिरोधार्य कर लिया और जिनमन्दिरों में अठाई महोत्सव करवाना प्रारम्भ भी कर दिया तत्पश्चात् उन नूतन श्रावकों के भाव बढ़ाने के लिये तथा उन योग्य साधुओं की योग्यता पर उन दोनों मुनियों को पण्डित पद से विभूषित बना दिये। बाद सूरिजी ने अपने कई साधुओं को वहां ठहरा कर आपने वहां से विहार कर दिया सत्यपुर, चन्द्रावती, पद्मावती आदि नगरों के लोगों को धर्मोपदेश देते हुये मिन्धभूमि में धर्मप्रचार करतेहु वीरपुर नगर में पधारे। यह तो हम पहिले ही कह आये हैं कि पूर्व जमाने में जैनाचार्यों का व्याख्यान मुख्य त्याग वैराग्य और आत्मकल्याण पर विशेष होता था यही कारण था कि जनता में त्याग भावना विशेष रहती थी । वीरनगर में बाप्पनाग गोत्रिय गोशल नामक संठ के राहुली नाम की भार्या थी उसके पुत्र धरण को दीक्षा दे उसका नाम जयानंद रख दिया । तर श्चात् सूरिजी ने कई अर्सा सिन्ध में विहार कर धर्मप्रचार बढ़ाया । पट्टावनीकारों ने आपके विहार के विषय बहुत लिखा है। आपने कई मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, कई मन्दिरों की प्रतिष्टा करवाई, कई तीर्थों की यात्रा की । बहुत अजैनों को जैनधर्म में दीक्षित कर जैन संख्या को बढ़ाई इत्यादि आपने अपने शासन समय जैनधर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया। अपने विहार भी खूब दूर दूर प्रदेशों तक किया था। पांचाल पूर्व वगैरह में घूमते घूमते पुनः मरुधर में पधारे । आप अपनी अन्तिमावस्था में नागपुर में विराजते थे। एक रात्रि श्राप विचार कर रहे थे कि शायद् अब मेरा आयुष्य बहुत नजदीक ही हो, किसको सुरिपद दूं ? इतने में तो देवी सच्चायिका ने कहा पूज्यवर ! मुनि जयानन्द आपके पद को सुशोभित करने वाला सर्वगुण सम्पन्न है । अतः श्राप मुनि जयानन्द को ही सूरिपद अर्पण कर दीरावें : वस सूरिजी देवी के वचन को 'तथाऽस्तु' कह स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन संघ अप्रेश्वरों को सूचित भी कर दिया जिसमें अदित्यनाग गोत्रिय शाह भेरा ने सृरिषद के लिये बड़े ही समारोह से महोत्सव किया जिसमें शाह भेरा ने तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया और सूरिजी ने मुनि जयानन्द को सूरिपद देकर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया । तत्यश्चात् सूरिजी निर्वृतिभाव का सेवन करते हुए अन्तिम शखना में लग गये और अन्त में अनशनव्रत की अराधना कर २७ दिनों के अनशन के अन्त में समाधि-पूर्वक नाशवान शरीर को छोड़ स्वर्ग पधार गये । आचार्यश्री के शासन मे मुमुक्षुओं की दीक्षा १-भादोला के भाद्रगोत्री शाह नाथा ने दीक्षा ली। २ - नाइरपुर के बलाहगोत्रीय रघुवीर ने सूरि० दीक्षा । ३-उपकेशपुर के श्रेष्टिगोत्रीय रघुवीर ने ,, ,, ४-क्षत्रीपुरा के श्रष्टिगौत्रीय हरदेव ने , ५-विजयपट्टन के बाप्पनाग रामा ६-शंखपुर के अदित्यनाग लखमण ७-मांडव्यपुर के भाद्रगोर नोढ़ा ८-- घाटोति के विरहगो धीरा ने , , सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएँ] ७४५ ACAD TEACEAE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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