Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 926
________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ Partime ८-नरसिंहपुर के बोहरा गौ० मालुक के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा ९--मधिमापुरी के तप्तभट्ट गौ० गुगला के , शान्ति० , १.--कोलापुर के सुघड़ गौ० चूड़ा के , आदीश्वर , ११--महेसरीपुरी के चरड़गोत्र पेथा के , पार्श्व० , १२--नारदपुरी के श्रेष्टि गौ० मोहण के , अजित० , १३-आनन्दपुर के चिंचट गौ० जैता के , पार्श्वनाथ , १४-वल्लभी के क्षत्रीराव जगमाल के , विमल. १५--बुरानपुर के कुलभद्र चंचगदेव के , महावीर , ५.--तम्भनपुर के प्राग्वटवंशी फूवा के , , , १७--जोगनीपुर के प्राग्वटवंशी गोमा के , " " १८-हर्षपुरा के श्री श्रीमाल डावर के , १९--वीरपुर के भुरिगोत्री नांनग के , २०--किराटकुंप के चोरलिया० माला के , २.-उच्चनगर के लघुश्रेष्ठि, रणदेब के , , , २:--चन्द्रावती के कुमट गौ० यशोदेव के , नेमिनाथ , २३-- पासोली के ब्राह्मण शंकर के , चन्द्राप्रम , ४--नन्दपुर के चोरलिया. मोकल के , महावीर , ये तो केवल वंशावलियों में प्रायः उपकेशवंशियों के बनाये मन्दिरों की नामावली जितनी मिली है उसमें भी नमूना मात्र का उल्लेख किया है परन्तु उस समय अन्योन्य मुनियों द्वारा कितने मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवाई होगी कारण एक तो उस समय के श्रावकों के पास लक्ष्मी अपार थी दूसरे इस कार्य की आवश्यकता भी थी तीसरे समय के जान मुनियों का उपदेश भी इस विषय का अधिक था चतुर्थ गृहस्थ लोग इस पुनीत कार्य में द्रव्य व्यय कर अपना आत्म कल्याण एवं मनुष्य जन्म की सार्थकता भी समझते थे साथ में वे अपना आत्मीय गौरव भी समझते थे-नगर देगसर की अपेक्षा उस समय घर देरासर विशेष करवाये जाते थे। और घर देरासर होनेसे एक तो धर्म पर श्रद्दा दृढ़ रहती थी दूसरा पुरुष और स्त्रियों को पूजा का सुवि. धा रहता था तीसर अन्य देव देवियों को जैनौ के घरमें स्थान नहीं मिलता था इत्यादि अनेक लाभ थे ___ जैसे जैन श्रावकों को मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ट करवाने का उत्साहा था वैसे ही तीर्थों की यात्रार्थ मंघ निकालने का भी उमंग रहता था और अपने पास साधन होने पर कमसे कम जिन्दगी में एक वार श्री संघ को अपने प्रांगणे बुलाकर अपने हाथों से उनके तिलक कर संघ पूजा अवश्य करतथे और तीर्थों का संघ निकाल कर सबको यात्रा करवा कर स्वामि वात्सल्य एवं पहरामणी देकर कृतार्थ बनते थे । पट्टावलियों वंशावलियों श्रादि चरित्र प्रन्थों में कई संघपतियों का नाम लिखा हुआ मिलता है जिसको हम केवल थोड़े से नामों का यहाँ पर उल्लेख कर देते हैं। १-वीरपुर से श्रेष्ठि गोत्रीय शाह वीरम ने श्री शत्रुजयका संघ निकाला २-भरोंच से प्राग्वट वंशी शाह नेता ने , " सूरिजी के हाथों से प्रतिष्टाएं ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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