Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 941
________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिया तत्पश्चात् सूरिजी के उपदेश से कइ जैनमन्दिर बनबाये और कई जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करवाया और भी धर्म कार्य कर जैनधर्म की खुब उन्नति एवं प्रभावना को इस प्रकार आचार्य मानतुंगसूरि अनेक भूले भटके प्राणियों पर दया भाव लाकर उनका उद्धार कर जैनधर्म का प्रचार को बढ़ाया । आचार्य मानतुंगसूरि के शरीर में एक समय असाध्य रोगोत्पन्न हो गया था आपने धरणेन्द्र को बुला कर अनसन की सम्मति मांगी इस पर इन्द्र ने कहा पूज्यवर । अपका आयुष्यः अभी शेष रहा है अतः आप अनसन का बिचार छोड़ दें पूज्यवर ! आप जानते हो कि कर्म फल तो तीर्थङ्करादि सिलाका पुरुषों को भी भोगवना पड़ा था तथापि मैं आपको एक अठारह अक्षरों का मंत्र देता हूँ इस से शान्ति हो जायेगी इन्द्र मन्त्र देकर पताल लोक में चला गया ! मानतुंगसूरि सुबह और शाम को उस मन्त्र का जप किया करते थे अतः शान्ति एवं समाधि रहती थी सूरिजी ने भव्य जीवों के कल्याणार्थ उन अठारह अक्षरों गर्मित भयहर स्तोत्र बना दिया कि जिससे नौ प्रकार का रोग की शान्ति हो जावे और प्रबन्धकार लिखते है कि वह भयहर स्तोत्र आज भी अनेक प्राणियों के रोग की शान्ति करने को विद्यमान है। इस प्रकार आचार्य मानतुंगसूरि भूम्रमन कर जैन धर्म का खुब उद्योत किया और अन्त में श्राप अपने योग्य शिष्य मुनि गुणाकार को सूरिपद से विभूषित कर अनसन एवं समाधि पूर्व काल कर स्वर्ग पधार गये इति मानतुंगसूरि का सक्षिप्त जीवन !! पट्टावली कार तथा प्रबन्ध कार ने यह नहीं बतलाया कि मानदेवसूरि और मानतुंगसूरि के आपस में क्या सम्बन्ध था कारण मानतुंगसूरि के गुरु जिनसिंहसूरि बतलाया है और मानदेवसूरि ने अपने पट्ट पर एक योग्य मुनि को श्राचार्य बनाने का प्रबन्ध में उल्लेख किया है पर मानतुंग का नाम नहीं लिखा है यह एक विचारणीय विषय है ! दूसरा मानतुंगसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में गुणाकारसूरि को आचार्य पद दिया लिखा है तब पट्टावलीयों में मानतुंगसूरि के पट्ट धर वीरसूरि लिखा है तो मानतुंगसूरि और वीरसूरि के क्या सम्बन्ध था और गुणाकारसूरि को मानतुंगसूरि ने आचार्य पद दिया था तो वे उनके पट्टधर क्या नहीं हुऐ यह भी एक विचारणीय प्रसंग है ! आगे चल कर हम सब के समय का निर्णय करेगें उस समय इन बातों पर भी विचार करेंगे और इस लिये ही हमने पूर्वोक्त आचार्यों का समय नहीं लिखा है ! कारण इनके समय में बहुत सी गड़ बड़ सी दिखाई देती है खैर अभी हम पट्टावलियों के आधार पर इन श्राचार्यों का संक्षिप्त से जीवन लिखा दिया है। विशेष फिर आगे लिखा जायगा। श्राचार्य मल्लबादीसरि भरोंच नगर में एक जिनानन्दमूरि' नाम के आचार्य विराजते थे और बुद्धानन्द नामक बौद्धाचार्य भी वहीं रहता था। एक समय दोनों आचार्यों का राज सभा में वाद हुआ जिसमें बौद्धाचार्या बुद्धानन्द ने वितंडावाद करके जिनानन्दाचार्य को जीत लिया । अन्त जिनानन्दाचार्य भरोंच से विहार कर वल्लभी नगरी में पधार गये। वल्लभी नगरी के राजा शिलादित्य की बहिन दुर्लभादेवी थी और उसके तीन पुत्र थे जिनयश, यक्ष और मल्ल। प्राचार्य जिनानन्द ने दुर्लभादेवी और उनके तीनों पुत्रों को संसार की असारता का उपदेश देकर दीक्षा देदी और तीनों को आगमों का अध्ययन करवाया। बुद्धिशालियों के लिये ऐसा कौनसा अभ्यास दुष्कर [ मानतुंगमरि-भयहर स्तोत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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