Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 967
________________ वि० सं० २८२-२६८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २६....प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि (पांचवें) भद्रे स्वे सुविभूति सन्ततिसमो रत्नप्रभः मरि भाक्। श्री तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ सरणौ रत्नप्रभः पंचमः ॥ तत्कल्पोऽ यमपीह शुद्धचरितः पंचाननो ऽजयत । साफल्यं सुववार यं तु बहुधा धर्मप्रचारे क्षमम् ॥ grera चार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज अद्वितीय प्रतिभाशाली थे आर पांचमहानतं पालन करने में पांच समिति आराधन करने में पांचेन्द्रिय एवं पांच प्रमाद विजय करने में और पांचाचार पालन करने में पांचायणसिंह की भांति बड़े भारी शूरवीर थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि रत्नों की खान में रत्न ही उत्पन्न होते हैं । रत्नप्रभसूरि के नाम में ही ऐसा चमत्कार रहा हुआ है कि शासन का भार अपने सिर पर लेकर उन्होंने जैनधर्म को खूब ही उन्नतशील बनाया था जिनके उपकार को जैन C समाज क्षणमात्र भी भूल नहीं सकता है। आपका जीवन बड़ा ही रहस्ययय अनुकरणीय है। जिस समय की बात को हम लिख रहे हैं । उस समय भारतीय नगरों में सोपारपुर पाटण बड़ा ही उन्नतशील नगर था । व्यापार का तो एक केन्द्र ही था। जैनों की अच्छी आबादी थी। व्यापारार्थ अन्य स्थानों से बहुत से लोग आ आकर सोपारपट्टन को अपना निवास स्थान बना रहे थे। उसमें भद्र गोत्रिय शाह देदा नामक साहूकार भी एक था। शाह देदा के तीन पुत्र थे, राणा, साहरण, और लुम्बा । राणा तो वहां के राजा के मन्त्री पद पर तथा साहरण सेनापति पद पर नियुक्त थे । तब लुम्बा व्यापार करता था। शाह लुम्बा का व्यापार केवल भारत ही में ही नहीं, पर भारत के बाहार पाश्चात्य प्रदेशों में भी था। आपका व्यापार जल और थल दोनों मार्गों से होता था। साधर्मी भाइयों की ओर आपका अधिक लक्ष्य था । उनको व्यापार में शामिल रख कर तथा वेतन पर रख कर लाभ पहुँचाना अपना कर्त्तव्य समझता था । यही कारण था कि इस प्रकार की सहायता पाकर उस समय जैनेतर लोग खुशी से जैन बन जाते थे। इन तीनों भ्राताओ के जैसे द्रव्य बढ़ता था वैसे परिवार भी बढ़ता । शाह राणा के नौ पुत्र तीन पुत्रिय थीं साहरण के आठ पुत्र पांव पुत्रिय थीं तब शाह लुम्बा के पांच पुत्र और साथ पुत्रियां थीं। उस समय उपकेवंश प्राग्वट वंश और श्रीमालवंश के तो आपस में विवाह सम्बन्ध था ही पर क्षत्रिश्रादि के उच्च खानदान में भी कोई लग्न शादी कर लेते तो रुकावट नहीं थी और ऐसे अने । दाहरण वंशावलियों पट्टावलियों में उपलब्ध भी होते हैं । शाह लुम्बा के एक पुत्र का विवा क्षत्रिय कन्या के साथ तथा दूसरे पुत्र का प्राग्वट पुत्री के साथ हुआ था । इसी प्रकार शाह राणा की पुत्री क्षत्रियों के यहां परणाई थीं। वास्तव में उपकेशवंशी लोग भी प्रायः क्षत्रिय वंश के ही थे । शाह देदा का घराना वंश परम्परा से जैनधर्म का उपासक ७३६ सोपारपुर पट्टण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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