Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

View full book text
Previous | Next

Page 943
________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की माता को मिली । उसने रोने का कारण पूछा तो मल्ल ने अपने हाथ से किसी ने पुस्तक खींचलेने का सब हाल कहा । इस पर साध्वी एवं सकल श्री संघ को आश्चर्य के साथ दु ख हुआ। मुनि मल्ल ने कई उपाय सोचे परन्तु आखिर उसने श्रुतदेवता की आराधना करना ठीक समझ कर 'गिरिखण्ड' नामक पर्वत की गुफा में जाकर छट छट पारणा और पारणा के दिन रूक्ष आहार लेना शुरु किया जिसको चार मास होगया। इस पर साध्वी दुर्लभा एवं श्रीसंघ ने मुनि को विगइ लेने का आग्रह किया। पर मुनि ने इनकार कर दिया खैर छ मास के अंत में श्रुत देवता ने संतुष्ट होकर परीक्षा के लिये मुनि को कई प्रकार के प्रश्न पुच्छे जिसके उत्तर मुनिमल्लने शीघ्र और भाव पूर्ण दिये मुनि मल्ल की स्मरण शक्ति से प्रसन्न होकर देवता ने वरदान दिया । मुनि ने पुस्तक मांगी। देवता ने कहा पुस्तक तो नहीं मिलेगी ? कारण उसके पढ़ने से कई उपसर्ग होंगे परन्तु मैं आपको वरदान देता हूँ कि जो एक श्लोक आपने पढ़ा है उससे ही श्राप सम्पूर्ण प्रन्थ की रचना कर सकोगे, कहीं पर भी स्खलना नहीं श्रावेगी इत्यादि मुनि मल्ल 'तथास्तु' कह कर अपने स्थान आये और अपनी माता एवं श्रीसंघ को सब हाल कहा जिससे सब लोग संतष्ट एवं प्रसन्न हये । तत्पश्चात् मुनि मल्ल ने दश हजार श्लोक प्रमाण वाला नयचक प्रन्थ रचा जिसको देख राजा प्रजा खुश हुये और उस पुस्तक रत्न को गजारूढ़ करवा कर महामहोत्सव पूर्वक उपाश्रय में पधराया । आचार्य जिनानन्दसूरि दीर्घकाल से वल्लभी नगरी में पधारे श्रीसंघ की प्रार्थना से सूरिजी ने मुनि मल्ल को योग्य समझ कर आचार्य पद से विभूषित किया। श्री जिनयश नामक मुनि ने एक प्रमाण विषय का प्रन्थ बनाया और गुरु के कहने से अल्लराजा की राजसभा में जाकर उस प्रन्थ को पढ़कर सुनाया तथा यक्षमुनि ने अष्टांग निमित्त नामक प्रन्थ की रचना की। प्राचार्य मल्ल ने किसी स्थविरों से बौद्धों द्वारा अपने गुरु जिनानन्द का पराजय सुना यह बात श्रुतदेवतया संघसमाराधितया ततः । ऊचे तदा परीक्षार्थ को मिष्टा इति भारतीम् ॥ २९ ॥ वल्ला इत्युत्तरं प्रादान्मल्ल फुल्लतपोनिधिः। षण्मासान्ते पुनः प्राह वाचं केनेति तत्पुरः ॥ ३० ॥ उक्त गुडघृतेनेति धारणातस्तुतोष सा । वरं वृण्विति च प्राह तेनोक्तं यच्छ पुस्तकम् ॥ ३१ ॥ श्रु ताधिष्टायिनि प्रोचेऽवहितो मद्वचः शृणु । ग्रन्थेऽत्र प्रकटे कुर्यषिदेवा उपद्रवम् ॥ ३२ ।। लोकेनैकेन शास्त्रस्य सर्वमथं ग्रहीष्यसि । इत्युक्त्वा सा तिरोधत्त गच्छं मल्लश्च सर्गतः ॥ ३३ ॥ नयचक्र नवं तेन श्लोकायुतमितं कृतम् । प्राग्ग्रन्थार्थ प्रकाशेन सर्वोपादेयतां ययौ ॥ ३४ ॥ शास्त्रस्यास्य प्रवेशं हं संघश्चके महोत्सवात् । हस्तिस्कन्धाधिरुढस्य प्रौढस्य च महीशितुः॥ ३५ ॥ तथा जिनयशोनामा प्रमाणग्रन्थमादधे। अल्लभूपसुभेवादि श्रीनन्दकगुरोगिरा ॥ ३० ॥ यक्षेण संहिता चक्रे निमित्ताष्टाङ्गबोधनी। सान् प्रकाशयत्यर्थान् या दीपकलिका यथा ॥ ३९ ॥ मल्ल समुल्ल-सन्मुल्लीफुल्लवेल्लयशोनिधिः । शुश्राव स्थविराख्यानात् न्यक्कारं वौद्धतो गरोः॥ ४० ॥ अप्रमाणैः प्रयाणः स भृगुकच्छं समागमत् । संघः प्रभावनां चक्र प्रवेशादि महोत्सवैः ॥ घुद्धानन्दस्ततो बौद्धानन्दमद्भुतमाचरत्। श्वेताम्बरो मया बादे जिग्ये द वहनमुम् ॥ मल्लाचार्यः स षष्मासी यावत्प्राज्ञार्यमावदत् । नयचक्रमहामन्थाभिप्रायेणात्रुटद्वचः ॥ ५७ ॥ नावधारयितुं शक्तः सौगतोऽसौ गतो गृहम् । मल्लेनाप्रतिमल्लेन जितमित्यभवन् गिरः ॥ ५८ ॥ मल्लाचार्ये दधौ पुष्पवृष्टिं श्रीशासनामरी। महोत्सवेन भूपालः स्वाश्रये तं न्यवेशयत् ॥ ५९ ॥ विरुदं तत्र वादीति ददौ भूपो मुनिप्रभोः । मल्लवादी सतो जातः सूरिभूरिकलानिधिः ॥ ६१- प्र० च० [आचार्य मल्लवादी द्वारा पौधों को पराजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980