Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 956
________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२-६९८ हे गौतम ! दस हजार जीव तो एक मछली की कुक्ष में पैदा हुए एक जीव देवता में और एक जीव मनुष्य योनि में और शेष जीव नरक तिपंच गति में उत्पन्न हुए हैं। हे भगवान । युद्ध में मर कर देवता में कौन गया ? हे गौतम--मैं सुनाता हूँ तू ध्यान लगा कर सुन । राजा चेटक के सामंतों में एक वर्णनागनतुपा भी था और वह जैनधर्म का एक व्रत धारी भावक भी था। उसकी प्रतिज्ञा थी कि मैं छठ-छठ ( दोदो दिन के अन्तर से भोजन करता तप करता रहूँ परन्तु जिस दिन छठ का तप था उसी दिन राजा चेटक का संदेश पाया कि कल तुमको संग्राम में जाना होगा। इस पर वर्णनागनतुआ ने अपने मन में सोचा कि एक तो मालिक का नमक खा रहा हूँ उसको हराम न करके हलाल करना है। दूसरे युद्ध में जाना है और वहाँ पर जीवन --मरण का सवाल है । अतः आज छठ का पारणा न करअष्टम का निश्चय कर लेना चाहिये क्योंकि पारणा करने पर शरीर भारी पड जायगा इतना काम नहीं होगा इत्यादि विचारों से उसने अष्टम का व्रत कर लिया और अपनी सेना लेकर युद्ध स्थल पर आ गया। उस वर्णनागनतुआ के एक बाला मित्र भी था। उसका यह नियम था कि जो यह मित्र कहे एवं करे वैसा ही करना जो उसको फल होगा वह मुझे भी होगा। यह सब धार्मिक क्रिया मित्र के साथ किया करता था वह भी अपनी सेना को साथ लेकर युद्ध में चला गया। जब युद्ध आरम्भ हुआ तो वर्णनाग नतुश्रा के विपक्षी ने कहा वर्ण तू श्रावक है तेरे पर मुझे दया पाती है अतः तू तेरा वाण चलाले नहीं तो तेरे मन की मन में रह जायगी १ वर्ण ने जवाब दियाकि मुझे बिना अपराध किसी को मारना नहीं कल्पता है यह कहते ही प्रतिपक्षी को गुस्सा आया और खेंच कर जोर से वाण चलाया कि वर्ण के कलेजे में लगा इस पर वर्ण ने वाण चलाया जिससे प्रति विपक्षी का प्राण छूट गया इस हालत में संग्राम बन्द हो गया । वर्ण अपना रथ लेकर एकान्त स्थल में आया रथ से अश्वों को मुक्त कर आपने एक धूलि की वेदिका बनाई उस पर सूर्य सन्मुख बैठ कर भगवान महावीर को नमस्कार करके कहा कि पहले भी मैंने भगवान महावीर के समीप श्रावक के बारह व्रत लिये थे और इस समय भी भगवान महावीर को साक्षी मे यावत् जीव व्रत ग्रहन एवं चार श्राहार-अठारह पापों का सर्वथा त्याग करता हूँ। अर्थात् अन्तिम जीवन तक अनशन कर लिया बाद अपने शरीर में से लगा हुआ वाण खेंच कर निकाल दिया जिससे वर्ण के प्राण पखेरू उड़ गये। वे वहां से मर कर देव योनि में उत्पन्न हुए । इसी प्रकार वर्ण के बाल मित्र का हाल हुआ वह जानता तो कुछ नहीं था पर उसके भी वाण लगा और एकान्त स्थल में आकर वर्ण के माफिक सब क्रिया करके कहा कि जैसा मेरे मित्र को हुआ वैसा मुझे भी होना। वह मर कर मनुष्य योनि में उत्पन्न हुए नजदीक में रहने वाले देवताओं ने वर्णनागनतुश्रा के अनशनपूर्वक मृत्यु के कारण उसके शरीर पर सुगन्धी पुष्प जल बरसा कर महोत्सव किया जिससे इतर लोग कहने लगे कि वीरता के साथ मरने वाले देव गति में उत्पन्न होते हैं । वास्तव में देवता होना युद्ध का कारण नही पर शुभाध्व साय से ही देव होने का कारण है। राजा कूणिक एक वीर राजा था । आपने अपने पिता णिक के विशाल साम्राज्य की सीमा को कम न की बल्कि बढ़ाई थी। मगद और अंग तो पहले से ही अपने अधिकार में थे पर वैशाला के राज को मगद के राज में मिला लिया था इससे उत्तर भारत में सर्वत्र आपकी आज्ञा चलने लग गई थी । राजा वर्णनागनतुआ का युद्ध में स्वर्गवास ७२७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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