Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 934
________________ आचार्य सिद्धभूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२ –६९८ मेरा तक्षशिला श्राना तो इस समय बन नहीं सकता मैं यहाँ बैठा ही तुम्हारे उपद्रव की शान्ति कर दूंगा अतः सूरिजी ने लघु शान्ति रूप शान्तिस्तव बना कर वरदत्त को दे दिया । वरदत्त गुरू को बन्दन कर पुनः तक्षशिला आया और गुरु महाराज का दिया हुआ शान्तिस्तव संघ कौ देकर सब विधि कह सुनाई उसी प्रकार करने से नगर में सर्वत्र शान्ति हो गई जिससे जैन एवं जैनेत्तर सब लोगों ने सूरिजी एवं जैनधर्म का महान् उपकार समझा बाद बहुत से लोग तक्षशिला त्याग कर सिन्ध शूरसेन वगैरह : जहाँ अपना सुविधा देख वहां चले गये और तीन वर्षों के बाद तुर्कों ने तक्षशिला का ध्वंस कर डाला ! बाद कई अर्सा से बादशाह गजनी ने तक्षशिला का पुनरुद्धार कर उसका नाम गजनी रख दिया था । इधर आचार्य मानदेवसूरि ने मनुष्यों को ही क्यों पर कई देव देवियों को धर्मोपदेश देकर उनको आत्म कल्याण का उत्तम रास्ता बतलाया और अनेक भव्यों का उद्धार कर अपने श्रायुष्य के अन्त में किसी योग्य मुनि को अपने पट्ट पर आचार्य बना कर आप अनसन एवं समाधि पूर्व स्वर्ग सिवार गये इस प्रकार आचार्य मानदेवसूरि शासन के महान् प्रभाविक आचार्य हुए हैं आपका समय के लिये हम आगे चल कर विचार करेंगे - २० - श्राचार्य मान तुगंसूरि-आप बड़े ही विद्या बली एवं अनेक लब्धियों से विभूषित थे कई राजा महाराजा आपके चरणों की सेवा कर अपने जीवन को कृतार्थ हुआ समझते थे । आपका पवित्र चरित्र बड़ा ही अनुकरणीय है । बनारसी + नगरी में जिस समय ब्रह्मक्षत्री वंशका हर्षदेव राजा राज करता था और उसी तक्षशिला नगरी जैनों का एक धर्म चक्र नाम का भगवान् चन्द्रप्रभ का तीर्थ था प्रबन्धकार स्वयम् लिखते हैं कि तक्षशिला के खोदकाम से पीतल वगैरह की जैनमूर्तियां आज भी निकलती हैं और यह सत्य भी है प्रबन्धकार के समय ही क्यों पर आज भी वहाँ के खोद काम से जैनमूर्तियों वगैरह स्मारक चिन्ह भूमि से निकलते हैं । चीनी यात्री हुयेनसांग विक्रम् की छटी शताब्दी में भारत की यात्रार्थं आया था उस समय धर्मचक्रतीर्थं बौद्धों के हाथ में था और चंद्रप्रभ बोधिसत्व तीर्थ कहलाता था इनके अलावा भी बहुत से जैनमन्दिर बौद्धों ने अपने कब्जे में कर लिया था । जो उक्त चीनी यात्री के यात्रा वितरण से स्पष्ट पाया जाता है। वीर वंशावलीकार लिखते हैं कि आचार्य मानदेवसूरि ने बहुत से क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उपकेश ( वंश ) में मिलाये | पन्यासश्रीकल्याणविजयजी महाराज ने मानदेवसूरि की प्रर्यालोचना में लिखते हैं कि ओसवाल जाति पश्चिम दिशा से आई होगी इत्यादि । पन्यासजी महाराज का यह अनुमान कहां तक ठीक है कारण मानदेवसूरि के समय इस जाति का नाम ओसवाल नहीं था पर उपकेशवंश था और इस नाम संस्करण का कारण उपकेशपुर था जो मरुस्थल का एक नगर था दूसरा उपकेशवंश को रहन-सहन रीति-रिवाज वेशभाषा वगैरह सब मारवाड़ की ही है अतः इस जाति की मूलोत्पत्ति मरुधर से ही हुई है हाँ पट्टावलियादि ग्रंथों में उस समय तक्षशिला में उपकेश वंसियों की बहुत आबादी थी और देवी के कथन से उन्होंने तीन वर्ष के बाद तक्षशिला का भंग होना समझ कर वे लोग वहाँ से चल कर पंजाब में आ गये हों तो यह बात संभव हो भी सकती है । पर ओसवाल जाति को ही पश्चिम की ओर से आई कहना तो केवल भ्रम ही है । तक्षशिला के भांगपूर्व उपकेशगच्छचार्यों का कई बार तक्षशिला में बिहार हुआ और कई चतुर्मास भी वहां किये थे यदि उपकेशवंशियों का वहाँ गहरी तादाद में अस्तित्व नहीं होता तो वहाँ उपकेशच्छाचार्यों के इस प्रकार बार-बार जाना ना शायद ही होता तथा वीर वंशावली के लेखानुसार मानदेवसूरि बहुत से क्षत्रियों की प्रतिबोध देकर उपकेश बनाना भी इस बात को साबित करता है कि इनके पूर्व उपकेश वासियों का भारत के चारों और प्रचार बढ़ गया था। + सदासुरसरिद्वीचीनिचयाचांतकश्मला । पुरी वाराणसीव्यस्ति साक्षादिव दिवः पुरीः ॥ ५ असीत् कोविद कोटीरमर्थिदारिद्यपारम् । तत्र श्री हर्षदेवाख्यो राजा न तु कलंक भृत् ॥ ६ ब्रह्म क्षत्रिय जातीयो धनदेवाभि सुधीः । श्रेष्टीतत्राभवद्विश्वप्रजा भूपार्थ साधकः ॥ ७ आचार्य मानतुंगलूर ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ७०५ www.jainelibrary.org

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