Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 928
________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] भगवान महावीर की परम्परा भगवान महावीर की परम्परा में १ - सौधर्माचार्य २ जम्बु ३ प्रभव ४ शय्यंभव ५ यशोभद्र ६ सभूति विजय - भद्रबाहु ७ स्थुलिभद्र ८ महागिरी - सुहस्ती ९ सुस्थि- सुप्रतिबुद्धि १० इन्द्र दिन्न ११ आर्य दिन्न १२ सिंहगिरी ३ बज्र १४ श्रार्य बज्रसेन । इन सबका वर्णन पूर्व प्रकरणों में लिखा जा चुका है। वन के साथ कदर्पि यक्ष की घटना बनी उसको यहाँ लिख दी जाती है । सूरि विहार करते हुए मधुमति नगरी में पधारे। उस नगरी में एक कदर्जि नामक वणकर रहता था उसके आडी और कुहाडी नाम की दो स्त्रियाँ थी वे भक्षाभक्ष एवं पयापय में विवेक रखती थीं पर कदर्पि अभक्ष एवं अपय में अशक्त होकर माँस मदिरा का सेवन करता था इस हालत में उसकी दोनों स्त्रियों ने उपालम्ब दिया जिससे कदर्पि क्रोधित होकर जंगल में जाकर एवं चिन्तातुर होकर बैठ गया। इधर से सूरिजी महाराज थलि भूमि को पधार रहे थे । कदर्पि ने आचार्य श्री को देखकर खड़ा हुआ और बन्दन नमस्कार किया आचार्य श्री ने कदर्पि को अल्पायुः वाला जान कर उपदेश दिया कि तूं कुछ व्रत नियम ले जिससे तुम्हारा कल्याण हो । इस पर कदर्पि ने कहा प्रभो ! आप उचित समझे वह प्रत्याख्यान करवादें आचार्यश्री ने कहा कि तू भोजन करे तब उसके पूर्व कंदोरा की देरी की गाँठ छोड़ " नमो अरिहन्ताणं" शब्द का उच्चारण करना जब भोजन कर ले तो फिर गाँठ लगा देना अर्थात् जब तक गाँठ रहे तेरे पश्चखान हैं कुछ खाना पीना नहीं और जब गाँठ छोड़ दे तब तू खुल्ला है एक नवकार कह कर भोजन कर सकता है इसको गंठसी प्रत्याख्यान कहते हैं । कदर्पि ने गुरु वचन को स्वीकार कर लिया परन्तु उसको माँसादिका व्यसन पड़ा था उसको छोड़ नहीं सका । एक समय में किसी ने मैदान में माँस पकाया था । आकाश में कोई गरुड़ एक सर्प को मुँह में लेकर जा रहा था उस सर्प के मुँह से विष गिरा वह पकता हुआ माँस में पड़ गया। उस माँस के खाने में कदर्पि भी शामिल था बस ! माँस खाते ही उसका शरीर विष व्याप्त हो गया और थोड़ी देर में कदर्प कालकर व्रत के प्रभाव से व्यन्तरदेव की योनि में जाकर देवपने उत्पन्न हो गया ! रहा था और इन महात्मा जब कदर्पि की दोनों स्त्रियों को मालुम हुआ कि मेरा पति एक महात्मा की संगत में उन्होंने कुछ सिखाया जिससे मेरा पति मर गया अतः उन दोनों ने राजा के पास जाकर कहा मेरे पति को मार डाला है ! राजा ने बिना सोचे समझे आचार्यश्री को बुलाकर पहरा में बैठा दिया ? उधर कदर्पि का जीव व्यन्तरदेव हुआ था उसने उपयोग लगाया तो परोपकारी आचार्यश्री निर्दोष होने पर भी राजा ने उनका अपमान किया अतः उसने नगर के प्रमण वाली एक शिला विकुर्वी जिसको देख राजा प्रजा घबरा उठे और देव से प्रार्थना की कि यदि हमारा अपराध हुआ हो तो क्षमा करावे ! देव ने कहा श्ररे मूर्खो ऐसे विश्वोपकारी महात्माओं का अपमान करते हो यह शिला तुम अपराधियों के लिये बनाई है नगर पर डालते ही तुम्हारा और नगर का विनाश हो जायेगा! इतना कहते ही राजा प्रजा ने सूरीश्वरजी के चरणों में नमस्कार कर अपने अपराध की क्षमा मागीं और खूब गाजे बाजे के साथ सूरिजी को उपाश्रप में पहुँचाया तब जाकर उपद्रव की शान्ति हुई ! देव कदर्पि ने कहा पूज्यवर ! मैंने जिन्दगी भर पाप कर्म संचय किया पर केवल एक वचन ( नवकार ) के स्मरण मात्र से मैं इस देव ऋद्धि को प्राप्त हुआ हूँ अतः कृपाकर कोई कार्य बतलावें कि मैं उसको कर कृतार्थ बनूं ! सूरिजी ने कहा देव ! नवकार मंत्र ऐसी औषधि है कि आर्य वज्रसेन और कदर्षि यक्ष ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only ६९९ www.jainelibrary.org

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