Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 931
________________ वि०सं० २८२-२९८ वर्ष 1 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मुमुक्षुत्रों को आनन्द का देने वाला है। उस मन्दिर की सेवा पूजा उपासना करने वाले बहुत सुबुद्धि लोग बसते हैं ! उस मन्दिर में एक देवचन्द्र नामक उपाध्याय भी रहते हैं और उस मन्दिर की सब व्यवस्था उपाध्यायजी द्वारा ही होती है । उसी समय सुविहित शिरोमणि महान प्रभाविक सर्वदेवसूरि नामक एक श्राचार्य बनारसी से सिद्धगिरी की यात्रार्थ बिहार करते हुए कोरंटपुर नगर में पधारे। वहां के श्रीसंघ ने आचार्यश्री का सुन्दर स्वागत किया संघ की भक्ति देख सूरिजी ने कई दिन तक वहां स्थिरता की । तब आपश्री ने सुना कि यहां महावीर मन्दिर में एक देवचन्द्र उपाध्याय रहता है वह गीतार्थ एवं विद्वान होता हुआ भी महावीर मन्दिर की सब व्यवस्था करते हैं जो साधु धर्म के लिये अकल्पनिक है ! अतः आचार्य सर्वदेवसूरि ने उपाध्याय देवचन्द्र को हितकारी एवं मधुर उपदेश देकर उनको समझाया और उपाध्यायजी भी समझ गये जब उन्होंने मन्दिर की व्यवस्था एवं चैत्यवास का त्याग कर उपविहार करना स्वीकार कर लिया तब आचार्य सर्वदेवसूरि ने उनको योग्य समझकर सूरिपद से विभूषित कर दिये और आप सामन्तभद्रसूरि के पट्टधर वृद्धदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए ! पट्टावली एवं प्रबन्धकार लिखते हैं कि श्राचार्य वृद्धदेवसूरि बड़े ही तपस्त्री थे आपने अपनी अन्तिम व्यय में अपने पट्टधर मुनि प्रद्योतन को आचार्य बनाकर आप अनसन एवं समाधि पूर्वक स्वर्ग पधार गये । १८ आचार्य प्रद्योतनसूरि महाप्रतिभाशाली उप्रबिहारी एवं धर्मप्रचारी एक जबर्दस्त श्राचार्य हुए । श्राप भू भ्रमण करते हुए एक समय मारवाड़ की ओर बिहार किया और क्रमशः नारदपुरी नगरी में पधारे संघ ने आपका अच्छा सत्कार किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था उसी नगर में एक श्रेष्ठि जिनदत्त बड़ा ही धनेश्वरी एवं श्रद्धा सम्पन्न श्रावक रहता था और आपके गृहदेवी का नाम धारणी था आपके एक मानदेव नाम का पुत्र भी था वह भी सूरिजी का व्याख्यान सुना करता था एक दिन आचार्यश्री ने संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, कुटुम्ब की स्वार्थता और आयुष्य की स्थिरता का उपदेश दिया और साथ में दीक्षा का महत्व और आत्म कल्याण करने की परमावश्यकता समझाई । यों तो आपके व्याख्यान का प्रभाव सब लोगों पर हुआ ही था पर श्रेष्ठि पुत्र मानदेव की आत्मा पर तो इस कदर असर हुआ कि उसने सूरिजी से अर्ज की कि हे प्रभो ! मैं मेरे माता पिता की आज्ञा लेकर आपके चरण कमलों में दीक्षा लूंगा ? सूरिजी ने कहा 'जहा सुखम्' मानदेव आचार्य श्री को वन्दन कर अपने घर पर आया और माता पिता से दीक्षा के लिये आज्ञा मांगी परन्तु मोह कर्म की पास में बन्धे हुए माता पिता कब चाहते थे कि मानदेव हमको छोड़ दीक्षा ले ले ? परन्तु जिसको संसार से घृणा आ गई हो वह इस कारागृह में, कब रह सकता है आखिर माता पिता की आज्ञा लेकर मानदेव सूरिजी की सेवा में भगवती जैन दीक्षा ले ही ली । मुनि मानदेव गुरुदेव का विनय भक्ति करके जैनागमों - अंग उपांग मूल छेदादि वर्तमान समग्र साहित्य का अध्ययन कर लिया और भी ऐसे अलौकिक गुणों को हासिल ४२ आचार्य सामन्तभद्र और उपाध्याय देवचन्द्र के आपस में क्या सम्बन्ध था इस विषय का प्रबन्धकार ने कुछ भी खुलासा नहीं किया है । उपाध्याय देवचन्द्र के समय चैत्यवास की बहुलता होगी पर सुविहितों का भी सर्वथा अभाव नहीं था और सुविहित उस समय इस प्रकार के चैत्यवास को हय समझते थे यही कारण है कि सर्वदेवसूरि ने देवचन्द्रोपाध्याय को चैत्य की व्यवस्था करने से मुक्त कर उम्र बिहार बनाया । + आचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के अठारह गौत्रों में श्रेष्टि गौत्र एक है । ७०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ आचार्यमद्योतनसूरी और मानदेव www.jainelibrary.org

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