Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

View full book text
Previous | Next

Page 917
________________ वि० सं० २८२–२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जानता था कि मेरी जिन्दगी में मैं इस प्रकार के कार्य करूँगा । परन्तु यह सब पूर्व भव में संचय किये शुभ कर्मों का ही फल है । अतः प्रत्त्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि सामग्री होते हुये शुभ कार्य कर पुन्योपार्जन करना चाहिये क्योंकि मनुष्य को समझना चाहिये कि लक्ष्मी सदैव के लिये स्थिर नहीं रहती है इससे तो जितना लाभ लिया जाय उतना ही अच्छा है । बहुत दूर काल के चरित्रादि ग्रन्थों में तो हम पढ़ते हैं इस प्रकार सुवर्ण सिद्धि तेजमतुरी आदि से सुबर्ण बनाया जाता था पर वे विद्यायें पांचवें आरे में भी विल्कुल नष्ट नहीं हो गई थी । आचार्य सिद्धसेन दिवाकरजी को चित्तौड़ के किले में पुस्तकें मिली थीं जिसके दो श्लोकों में सुवर्ण सिद्धि और सरल व सुभट नामक दो विद्यायें मिली थी और आपने कुर्मार नगर के राजा के लिये इन विद्याओं का उपयोग भी किया था। आचार्य पादलिप्तसूरि और नागार्जुन के पास भी सुवर्ण सिद्धि विद्या थी । श्रीशत्रुरंजय के उद्धारक जाबड़ के यहाँ तेजमतुरी थी जिससे सुवर्ण बनाकर श्रीशत्रुंजय का उद्धार करवाया था जगडूशाह ने भी तेजमतुरी से दुष्काल को सुकाल बनाया इत्यादि पांचवें ओर के भी कई उदाहरण मिलते हैं और इसमें श्राचार्य करने जैसी बात भी नहीं है कारण यह सब पुन्य प्रकृति के फल हैं । श्रस्तु | मुनि सोभाग्यकीर्ति पर सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा थी। मुनि शौभाग्यकीर्ति द्रव्य लक्ष्मी को छोड़ कर भाव लक्ष्मी ( ज्ञान ) को प्राप्त करने में जुट गया और थोड़े ही समय में सामयिक साहित्य का अध्ययन कर लिया। यही कारण था कि उज्जैन नगरी में सूरिजी ने अपने करकमलों से शोभाग्यकीर्त्ति को उपाध्याय पद से विभूषित किया और अन्त समय पुनित तीर्थ श्रीशत्रु जय पर सूरिपद अर्पण कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया था। श्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही अतिशयधारी बालब्रह्मचारी उप्रविहारी धर्मप्रचारी एवं महान प्रतिभाशाली आचार्य थे आपकी धवल कीर्ति पहिले से ही फैली हुई थी । श्राचार्य सिद्धसूरि श्री जय तीर्थ पर विराजमान थे उस समय महात्मा तापस भी शत्रुंजय पर आया था उसको पता लगा कि सारंग साधु बन गया है और अभी यहाँ पर ही ठहरा हुआ है । वह चलकर मिलने के लिये आया तो आचार्य श्री ने तापस को उपकारी समझ कर उसका यथोचित सत्कार किया । दोनों महात्मा आपस में मिले और परस्पर एक दूसरे का उपकार प्रदर्शित किया। तापस ने कहा कि आपने मुझे मरने से बचाया उस उपकार को मैं कब भूल सकता हूँ तब आचार्य श्री ने कहा श्रापने मुझे सुवर्णसिद्धि विद्या दी थी जिससे मैंने कई शुभ कार्य किये इत्यादि आपके उपकार को मैं भी कैसे भूल सकता हूँ । बाद सूरिजी ने तापस को कहा महात्माजी ! नीतिकारों ने कहा है कि "बुद्धिफलं तत्वविचारणंच” बुद्ध का फल है का विचार करना विद्या और लब्धियें केवल इस भव में शुभ फल देने वाली हैं पर मनुष्य को चाहिये कि जन्म मरण से छुटकारा पाकर आत्मा अक्षय सुख कैसे प्राप्त करता है इसके लिये विचार एवं प्रयत्न करे । तापस ने कहा इसमें ऐसी कौनसी बात है । कारण, पांच तत्वों से आत्मा बना है जब तत्त्वों में तत्त्व मिलजायगा तब श्रात्मा आत्मा में मिल जायगा फिर न जन्म है और न मरण ही है । सूरिजी ने कहा कि यह तो श्रापका एक भ्रम है क्योंकि पांच तत्व से आत्मा नहीं बनता है पर शरीर बनता है । श्रात्मा शरीर से भिन्न है । इन तत्वों के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होता है पर शरीर नष्ट होता है कारण आत्मा सदैव शाश्वत एवं नित्य द्रव्य है । आत्मा में अनन्तज्ञान, अनंतदर्शन, अनन्तचरित्र, और अनन्तवीर्य रूप गुण हैं। वह अक्षय है, हाँ कर्मों के प्रसंग से उस पर आवरण श्राजाता है जिससे ૬૮ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ सिद्धगिरि पर सूरिजी और तापस www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980