Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 916
________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ निकला तथा सारंग भी सूरिजी के पदाविन्द में नमस्कार करके बैठ गया तथा सूरिजी से अर्ज की कि गुरू महाराज क्या आज्ञा है ? सूरिजी ने कहा सारंग प्रकृति से निर्वृनि अनंत गुणा फल देती है । अतः निवृति मार्ग को स्वीकार करो, यही आज्ञा है । सारंग ने कहा गुरु महाराज मैं आपकी ही इन्तजारी कर रहा था। शाह जैता को मालूम हुआ कि सारंग तो सूरिजी के पास निवृति (दीक्षा) लेने को तैयार हुआ है । अतः जैता ने सूरिजी से कहा प्रभो ! आप जल्दी न करावें, सारंग के साथ हम भी दीक्षा लेने को तैयार हैं। तीर्थों का संघ निकाल कर यात्रा तो हम लोगों ने कर ली है पर अब मंदिर की प्रतिष्ठा का काम शेष रहा है पहले इन मूर्तियों की अंजनशीलाका और मंदिर की प्रतिष्टा करवा दें। बाद हम सब दीक्षा लेंगे । सूरिजी ने जैता की बात को ठीक समझ कर स्वीकार करली। इधर शाह जैता मन्दिर की प्रतिष्टा के लिये खूब जोर से तैयारियें करने लगा। यह प्रतिष्ठा कोई साधारण प्रतिष्ठा नहीं थी पर एक विशेष प्रतिष्ठा थी क्यों कि जिसके घर में सोने का खजाना हो फिर तो कहना ही क्या है ? शाह जैता ने बहुत दूर दूर प्रदेशों में श्रीसंघ को आमंत्रण भेज दिये, अतः श्राहवर्ग और साधु-साध्वियां खूब गहरी संख्या में पधारे । शुभ मुहूर्त में महा महोत्सव के साथ सूरिजी के कर कमलों से जिस दिन मन्दिरजी की प्रतिष्ठा हुई उसी दिन उसी मुहूर्त में सारंग के साथ शाह जैतादि ५६ नर नारियों को सूरिजी ने बड़े ही धामधूम से दीक्षा देदी और सारंग का नाम सौभाग्यकीर्ति रख दिया। शाह जैता और सारंग ने संघ को पहरामणी आदि का प्रबन्ध पहले से ही कर रक्खा था और यह कार्य जैता ने अपने शेष पुत्रों के जुम्मे कर दिया था । अतः शाह जैता, सारंग, सारंग की माता ने दीक्षा लेने के बाद आये हुए श्री संघ को शाह खेता ने सोने के थाल एवं २५-२५ सोने की मुहरों की पहरामणी दी और याचकों को दान देकर उनके घरों से दरिद्र को भगा दिया अहाहा ! सारंग ने पूर्व जन्म में किसी प्रकार के पुण्य सचय किये होंगे कि इस भव में बिना कुछ परिश्रम किये सुवर्ण सिद्धि हाथ लग गई और उसको भी उसने मूजियों की भांति संचय कर नहीं रक्खी परन्तु उसके जरिये अनेकों को आराम पहुँचा कर जैन धर्म की खूब ही प्रभावना की और अन्त में सारंग इतना भाग्याशाली निकला कि आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करता हुआ दीक्षा स्वीकार करली । यह कार्य कितना दुष्कर है 'एक जवानी और पैसा पल्ले, गम करे तो सीधा चल्ले" इस लौकिक कहावत को सारंग ने मिथ्या साबित करके बतला दी। एक तो सारंग की युवक वय और दूसरे सुवर्णसिद्धी विद्या द्वारा सोने का खजाना, इस हालत में विषय वासना पर लात मार देना यह सारंग जैसे का ही काम था। सारंग ने अपना नाम अमर कर दिया । यदि जैता निर्धन अवस्था में दीक्षा ले लेता तो दुर्जन लोग कह उठते कि विचारे के पास खाने को नहीं था अतः दीक्षा लेली पर जैता सच्च ही विजयीता निकला आज तो जैता की सर्वत्र भूरि २ प्रशंसा होती है कि धन्य है जैता को कि सब उम्र तो दुःख में निकाली और जब सुख मिला है तब उस पर लात मार कर दीक्षा लेली है । जैता के तेरह पुत्रों में एक सारंग ऐसा भाग्यशाली निकला कि जैता ने तीर्थयात्रा के लिये संघ मिकला । जैन मन्दिर में सुवर्ण प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवा कर देवलइंडा चढ़ाया । श्री संघ को अपने आंगणे बुलाकर सुवर्ण की पहिरामणी दी । साधर्मी भाइयों की सहायता, गरीबों का उद्धार, याचकों को दान और सात क्षेत्रों का पोषण कर अपनी कीर्ति को अमर बनाकर अन्त में दीक्षा भी लेली । तब ही तो कहा है कि नर के नसीब कौन जानता है कि किस समय क्या होता है। क्या शाह जैता स्वप्न में भी शाह जैता और सारंगादि ५६ दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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