Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६८२-६९८
श्रात्मा अपना भान भूल कर चतुर्गति में जन्म मरण करता है । यदि तप संयमादि से कर्मों को समूल नष्ट कर दिये जाय तो आत्मा परमात्मा बन कर सदैव के लिये परमसुखी बन जाता है । अतः आत्मिक अक्षय सुख की प्राप्ति के लिये सम्यक् ज्ञान दर्शन चरित्र की आवश्यकता है उसे स्वीकार कर आराधना करावे ।
तापस ने कहा कि क्या आत्मा और शरीर पृथक् २ पदार्थ हैं ?
सूरिजी ने कहा हाँ महात्माजी ! आत्मा और शरीर पृथक् २ पदार्थ हैं और इस बात को श्राप आसानी से समझ भी सक्ते हो कि जिस पदार्थ की उत्पत्ति है उसका विनाश भी आवश्य होता है। जैसे पांच तत्वों से शरीर पैदा होता है तब तत्व तत्वों में मिल जाने से उसका नाश भी हो जाता है। जिसको चरम चक्षुवाले प्रत्यक्ष में देख रहे हैं । तब आत्मा न तो कभी नया उत्पन्न होता है और न कभी उसका नाश ही होता है । हाँ, कर्मों के आवरणों के कारण उसकी पर्याय अवश्य पलटती है जैसे कभी नर कभी नरक कभी देवता कभी तिर्यच परन्तु आत्मा अक्षय है उसका कभी विनाश नहीं होता है । उदाहरण के तौर पर देखिये सोना एक द्रव्य है पर उसकी पर्याय बदलती रहती है जैसे सोने की चूड़ी है उसकी कंठी बन सकती है और कंठी की चूड़ी बन सकती है पर सोना रूपी द्रव्य तो शाश्वता है इसी प्रकार आत्मा को भी समझ लीजिये इत्यादि युक्ति एवं प्रमाण द्वारा सूरिजी ने इस प्रकार समझाया कि तापस को सूरिजी का कहना सत्य प्रतीत हुआ । तापस खुद विद्वान था आत्म कल्याण की भावना वाला था उसने स्वयं सोच लिया कि जीव सुख और दुख भोगव रहा है यह पूर्व संचित कर्मों का ही फल है और उन कर्मों को नष्ट करने के लिये ही तप जपादि क्रिया कांड एवं योग आसन समाधि लगाई जाती है अतः सूरिजी का कहना सत्य है कि आत्मा सदैव शाश्वता एवं एक नित्य पदार्थ है और आत्म के साथ रहे हुए कर्मो को नष्ट करने के लिये भिन्न २ मतों में पृथक् २ साधनायें भी हैं तथापि जैन धर्म की साधना में त्याग वैराग्य निस्पृहता
और निर्वृत्ति को विशेष स्थान दिया है । अत: मुझे जैन दीक्षा लेकर एवं सूरिजी की सेवा में रह कर प्रात्म कल्याण करना ठीक होगा। अतः तापस ने सूरिजी से कहा प्रभो! मैं आपके चरणों में जैन दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करना चाहता हूँ। सूरिजी ने कहा 'जहासुखम्' बस फिर तो देरी ही क्या थी तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय की पवित्र एवं शीतल छाया में सूरिजी ने तापस को जैन दीक्षा देकर उसका नाम 'तपोमूर्ति' रख दिया।
___ तपोमूर्ति ने ज्यों-ज्यों जैनधर्म की क्रिया और ज्ञान का अभ्यास किया त्यों-त्यों उनको बड़ा ही श्रानन्द आने लगा । मुनि'तपोमूर्ति' पहले से ही अनेक विद्याओं से परिपूर्ण थे फिर कर लिया जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धांत का अभ्यास फिर तो कहना ही क्या था उनके हृदय में जैनधर्म के प्रचार की बिजली चमक उठी। अतः वे जैनधर्म के प्रचार के लिये भरसक प्रयत्न करने में संलग्न हो गये।
उल्टे रास्ते चलने वाला मनुष्य जब सुलटे रास्ते पर आ जाता है तब वह खूब वेग से चलता है तथा उल्टे मार्ग की कठिनाइयों का अनुभव किये हुए मनुष्य के हृदय में दयाभाव भी पैदा हो जाता है और वह उल्टे मार्ग जाने वालों को सुलटे मार्ग पर लाने की कोशिश भी बहुत करता है । यही हाल हमारे मुनि तपोमूर्ति महात्मा का था।
आचार्य सिद्धसूरि श्रीशत्रुजय से विहार करते हुये सोपारपट्टन की ओर पधारे। तपोमूर्ति मुनि भी आपके साथ में ही थे । श्रीसंघ ने आपका सुन्दर सत्कार किया । वहाँ के लोग सूरिजी से पहले से ही परि. जीव और शरीर के विषय उपदेश
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