Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
पुत्र में ही हुआ था फिर भी उसने अपनी जननी जन्म भूमि को नहीं भूला अतः राज्य सिंहासन पर बैठने के बाद उसे अपनी राजधानी बनाया। साथ ही राजनीतिक दृष्टि से विचार करने पर भी वे कुछ दीर्घ-दृष्टि वाले माने जा सकते हैं। क्योंकि इतने बड़े साम्राज्य की व्यवस्था ठेठ पाटलीपुत्र या राजगृह जैसे एक कोने में पड़े हुये मगध देश के एक नगर में रह कर चलाने की अपेक्षा भारतवर्ष के हृदय रूप मध्यस्थल अवंति से शासन सूत्र चलाना श्रेयस्कर और अधिक उचित कहा जा सकता है ।
श्री सत्यकेतु विद्यालंकार मौर्य साम्राज्य के इतिहास में लिखते हैं कि :
मौर्य इतिहास में सम्राट् सम्प्रति बड़ा महत्वपूर्ण व्यक्ति है । दशरथ की मृत्यु के बाद वह स्वयं राज-सिंहासन पर बैठा । इससे पूर्व बहुत काल तक वह शासन का संचालन करता रहा था । अशोक के समय वह युवराज था और उसी ने अपने अधिकार से अशोक को राज्य कोष में से बौद्ध संघ को दान करने का निषेध कर दिया था । सम्राट् कुनाल के शासन में भी शासन-सूत्र उसी के हाथ में था । दशरथ के समय में भी वही वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि बहुत से प्रन्थों में सम्प्रति को ही अशोक का उत्तराधिकारी लिख दिया है। जैन साहित्य में भी अशोक के बाद सम्प्रति के ही राजा बनने का उल्लेख है ।...... ""जैन साहित्य में सम्प्रति का वही स्थान है, जो बौद्ध साहित्य में अशोक का । जैन- अनुश्रुति के अनुसार सम्राट् सम्प्रति जैन धर्म का अनुयाई था । और उसने अपने प्रिय धर्म को फैलाने के लिए बहुत प्रयत्न किया था । परिशिष्ट१ पर्व में लिखा है कि एक बार रात्रि के समय सम्प्रति को यह विचार पैदा हुआ कि अनार्य देशों में भी जैन-धर्म का प्रचार हो और जैन साधु स्वतन्त्र रीति से विचर सकें । इसके लिये उसने इन देशों में जैन साधुओं को धर्म प्रचार के लिए भेजा । साधु लोगों ने राजकीय प्रभाव से शीघ्र ही जनता को जैन-धर्म और आचार का अनुगामी बना लिया। इस कार्य के लिए सम्प्रति ने बहुत से लोको पकारी कार्य भी किये । ग़रीबों कों मुफ्त भोजन बांटने के लिए दान शालायें खुलवाईं। इन लोकोपकारी कार्यों से भी जैन धर्म के प्रचार में बहुत सहायता मिली। सम्प्रति द्वारा अनार्य देशों में प्रचारक भेजे गये, इसके प्रमाण अन्य ग्रन्थों में भी मिलते हैं। अनेक जैनमन्थों में लिखा है कि इस कार्य के लिए सम्प्रति ने अपनी लेना के योद्धाओं को साधुओं का वेष पहनाकर प्रचार के लिए भेजा था । एक ग्रन्थ में उन देशों में से कतिपय नाम दिए हैं, जिनमें सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया था। ये नाम प्रान्ध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र, कुडुक आदि हैं। जिनप्रभा सूरि के मत्त अनुसार सम्राट् सम्प्रति ने बहुत से विहारों का निर्माण भी कराया था । ये बिहार अनार्य देश में भी बनवाये गये थे । "
सम्प्रति-द्वारा बनाये गये अनेक जैन मन्दिरों में से एक का उल्लेख राजपूताने का भ्रमण करते हुए महात्मा टाँडसाहब ने इस प्रकार किया है:
" कमलमेर का शेष शिखर समुद्रतल से ३३५३ फीट ऊँचा है। यहाँ से मैंने मरु-क्षेत्र बहुदूरवत्ति स्थानों का प्रान्त निश्चय कर लिया। यहां ऐसे कितने ही दृश्य विद्यमान हैं, जिनका चित्र अंकित करने में लगभग एक मास का समय लगने की सम्भावना है । किन्तु हमने केवल उक्त दुर्ग और एक बहुत पुराने
१ - देखो आचार्य हेमचन्द्रसूरि कृत परिशिष्ट पर्व नामक ग्रन्थ । २- देखो तपागच्छ पट्टावली, आवश्यक चूर्णि, और कल्पसूत्र ।
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