Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १८---प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज (तृतीय)
नित्यं जैन समाज मान हित कृत् स्मार्यः सदार्यः सदा । आचार्यस्तु स ककमरि रभवदादित्य नागान्वये ।। दीक्षा स्वमगता मपीह सुदधावाचार्य पट्ट तथा । आसीद्यः कठिनस्तपश्चरणता स्वाचार युक्तोऽस्पृही ।।
चार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज अद्वितीय प्रभावशाली एवं धर्म प्रचारक आचार्य हुए । १ श्रापका जन्म कोरंटपुर नगर के प्राग्वटवंशीय शाह लाला को सुशीलभूषिता धर्म प्रिय भार्या ललितादेवी की कुक्ष से हुआ। शाह लाला पहिले से ही खूब धनाढ्य था पर जब ललितादेवी गर्भवती हुई तो शाह लाला के घर में चारों ओर से लक्ष्मी का इतना आग
मन हुआ कि लाला एक कुबेरलाल ही बन गया और केवल याचक ही नहीं पर जनता * भी उसको 'कुवेरलाला' कहने लग गई।
ललितादेवी को गर्भ के प्रभाव से अच्छे २ दोहले उत्पन्न होने लगे। उन दोहलों में परमेश्वर की पजा गरु महाराज की सेवां, साधर्मियों के साथ वात्साल्यता दीन दुखियों का उद्धार और अमरी पहड़ा वगैरह इत्यादि अनेक प्रकार के मनोरथ होते थे जिन दोहलों को साह लाला ने बड़े ही आनन्द के साथ पूर्ण किये और इन शुभ कार्यों में लाखों रुपये खर्च भी किये।
एक समय माता ललितादेवी को ऐसा दोहला उत्पन्न हुआ कि मैं अपनी सखियों के साथ संघ सहित छरी पालती हुई तीर्थ श्री शत्रुजय जाऊं और वहाँ भगवान आदीश्वर की पूजा कर अष्टान्हि का महोत्सव एवं पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य आदि करूं । जब ललितादेवी ने अपने दोहले की बात पतिदेव को कही तो शाह लाला बड़े भारी बिचार में पड़ गया कि एक तो शत्रुजय दुर बहुत दूसरे ललितादेवी को गर्भ का आठवाँ मास चल रहा है। इस हालत में यह दोहला कैसे पूर्ण हो सके । शाह लाला ने बहुत अक्ल दौड़ाई पर इसका उपाय कुछ भी उसकी दृष्टि में नहीं आया। शाह लाला अपने मित्र श्रीष्ठि यशोदेव के पास आया और अपने मनोगत भाव कह सुनाये । मंत्री यशोदेव ने भी खूब सोचा पर इस बात का तो कोई रास्ता उनको भी नहीं मिला। अतः वे दोनों चल कर गुरुवयं के पास आये और सब हाल सुनाया। इस पर गुरु महाराज ने सोचा कि गर्भ का जीव पुन्यवान हैं धर्म भावना से अनुमान किया जा सकता है कि यह गर्भ का जीवन शासन का कार्य करने वाला होगा अतः उन लोगों से कहा कि तुम नगर के बाहर श्रीशत्रुजय तीर्थ की रचना करवा कर ललितादेवी के मनोरथ पूर्ण करो। यह बात दोनों मित्रों के दिल में जंच गई और उन्होंने शत्रुजय तीर्थ की हूबहू रचना करवाना निश्चय करके अच्छे समझदार कारीगरों को बुलवाया और सब हाल कह कर समझाया और उन्होंने नगर के बाहर धवलगिरि पहाड़ को पसंद किया एवं तत्काल ही शुभ
५५८
Jain Education International
For Private & Personal use Only [ शाह लाला और ललितादेवी
Mainelibrary.org