Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५५७-५७४
एक खास अर्ज करने को आई हूँ, और वह यह है कि अब आपका आयुष्य केवल एक मास का शेष रहा है अतः आप अपने पद पर सूरि बना दीजिये। सूरिजी ने कहा ठीक है देवीजी ! आपने हमारे पूर्वजों को समय २ पर इस प्रकार की सहायता की है और आज मुझे भी सावचेत कर दिया अतः मैं आपका अहसान समझता हूँ और यह उपकेशगच्छ जो उन्नति को प्राप्त हुआ है इसमें भी खास आपकी सहायता का ही विशेष कारण है इत्यादि । इस पर देवी ने कहा पूज्यवर ! इसमें उपकार की क्या बात है ? यह तो मेरा कर्तव्य ही था। पूज्याचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी का मेरे पर कितना उपकार है कि उन्होंने मुझे घातकी पापों से एवं मिथ्यात्व से बचा कर शुद्ध सम्यक्त्व प्रदान किया है । उस महान उपकार को मैं कब भूल सकती हूँ इत्यादि परस्पर बातें हुई । सूरिजी ने कहा देवीजी मैं अपना पट्टाधिकार उपाध्याय विशाल मूर्ति को देना चाहता हूँ। इसमें आपकी क्या राय है ? देवी ने कहा बहुत खुशी की बात है । उपाध्यायजी योग्य पुरुष हैं आपके पद के उत्तरदायित्व को वे बराबर संभाल सकेंगे इत्यादि देवी अपनी सम्मति देकर अदृश्य होगई ।
प्रभात होते ही आचार्य कक्कसूरिजी ने अपने विचार उपस्थित संघ अप्रेश्वरों को बुलाकर कहा कि मैंने अपना पट्टाधिकार उपाध्याय विशालमूर्ति को देने का निश्चय कर लिया है और वह भी बहुत जल्दी । संघ अप्रेश्वरों ने कहा पूज्यवर ! आप अपना पदाधिकार उपाध्यायजी को देना चाहते हो यह तो बहुत खुशी की बात है और हमारा अहोभाग्य भी है कि इस प्रकार का कार्य हमारे नगर में हो पर इस कार्य को जल्दी से करने को फरमाते हो इससे हमारे दिल को घबराहट होती है । पूज्यवर ! आप शासन के स्तम्भ हैं चिरकाल विराज कर हम भूले भटके प्राणियों को सद् रास्ते पर लाकर कल्याण करो।
सूरिजी महाराज ने फरमाया कि अब मेरा आयुष्य शेष एक मास का रहा है। अतः मैं अपना पदाधिकार देकर अनशन व्रत करूंगा। अतः आपको इस कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये । सूरिजी के शब्द सुनकर सब लोग निराश होगये फिर भी उन्होंने आचार्य पद के लिये जो करना था वह सब प्रबन्ध कर लिया और आचार्य श्री ने चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय विशालमूर्ति को अपने पद पर स्थापन कर उनका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया । बस, उस दिन से ही आपश्री ने धवलगिरी की शीतल छाया में अनशन व्रत धारण कर लिया और अन्तिम आराधना में लग गये। बस, २१ दिन के अनशन एवं समाधि के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया।
सूरिजी का स्वर्गवास होने से श्रीसंघ को बड़ा भारी आघात पहुँचा पर काल के सामने किसकी चल सकती है ? उन्होंने निरुत्साही होकर निर्वाण क्रिया की। आचार्य देवगुप्त सूरि ने साधु समुदाय को धैर्य दिला कर कहा कि सूरीजी का विरह हमको भी असह्य है पर इसका उपाय भी नहीं है । सूरिजी ने अपने जीवन में जैनधर्म की खूब सेवा की । देशाटन कर अनेक शुभ कार्य किये इत्यादि उन पूज्य पुरुषों का अपने को अनुकरण करना चाहिये ।
पट्टावलियों, वंशावलियों आदि प्रन्थों में आचार्य कक्कसूरिजी ने अपने १७ वर्ष के शासन में प्रत्येक प्रान्तों में विहार कर जैन धर्म की अपूर्व सेवा की एवं अनेक भावुकों को उपदेश देकर उनको कल्याण मार्ग पर लाये जिसको थोड़ा नमूना के तौर पर यहाँ उल्लेख कर दिया जाता है । सूरिजी का अंतिम संदेश ]
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