Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० २६०-२८२ वर्ष
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भव में उपार्जन किया क्योंकि बिना सृष्टि के दुःख पैदा हो नहीं सकता है इससे भी यही सिद्ध होगा सृष्टि अनादि काल से प्रबाह रूप से चली आती है ।
यदि ईश्वर ने जीवों को सुखी बनाये थे तो दुखी क्यों बन गये तथा दुःखी बनाये थे तो क्या ईश्वर को उन जीवों प्रति द्वेष था कि बिना ही कारण विचारे जीवों को दुःखी बना कर दुःख दिया ।
सन्यासीजी ! संसार में जितने आस्तिक मत हैं उन सबकी मान्यता है कि परमाणु प्रकृति आत्मा और ईश्वर ये चारों शाश्वत है और इन पदार्थों से सृष्टि कही जाती है। जिसमें परमाणुओं का स्वभाव मिलने और बिछुड़ने का है और सृष्टि में जितने दृश्य पदार्थ हैं वह सब परमाणुओं से ही बने हैं । जब परमाणु शाश्वत हैं तो उनसे बने हुए पदार्थ को शाश्वत क्यों नहीं माना जाय ? अतः परमाणुओं से बनी हुई सृष्टि भी अनादि है । हाँ, किसी द्रव्य क्षेत्र काल भाव में परमाणुओं की स्थान अपेक्षा न्यूनाधिकता होती है तब सृष्टि की उन्नति अवनति भी अवश्य होती है। जैसे मानो कि एक बड़ा नगर किसी ने नष्ट कर डाला और उस नगर का तमाम सामान नष्ट होकर ज ंगल सा बन गया और उस नगर के लोगों ने एक उन्नत भूमि पर स्वर्ग सदृश्य नया नगर बसा दिया। अब हम पुराने नगर के लिये प्रलय कह सकते हैं तब नूतन नगर के लिये नयी सृष्टि पैदा की कह सकते हैं परन्तु वास्तव में न तो प्रलय है और न नूतन रचना ही है यह केवल परमाणुओं का मिलना बिछुड़ना ही है । इसी प्रकार आप सृष्टि को भी समझ लीजिये इत्यादि ।
सूरिजी के इस विवेचन का प्रभाव उपस्थित जनता पर खूब ही पड़ा । इतना ही क्यों पर सरल श्रात्मा वाले सन्यासीजी पर तो इतना असर हुआ कि वे उसी सभा में अपना वेश एक ओर रख कर सूरिजी महाराज के पास जैन दीक्षा लेकर आपश्री के शिष्य ही बन गये । हाँ सत्योपासक का तो यह कर्त्तव्य ही है कि सत्य वस्तु समझ में आ जाने के बाद वे क्षण भर की भी देरी नहीं करते हैं अर्थात् सत्य को स्वीकार कर ही लेते हैं । हमारे सन्यासीजी भी उसी श्रेणी के मुमुक्षु T
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शाह डाबर और सेठानी पन्ना अपने पुत्र के विवेचन को सुनकर मंत्र मुग्ध बन गये और यह बात है भी स्वभाविक कि जिसके कुल में ऐसा प्रतापी पुत्र जन्म लेकर इस प्रकार जनता का कल्याण करे इससे अधिक खुशी की बात ही क्या हो सकती है। शाह डाबर और पन्ना का वैराग्य कई गुणा बढ़ गया और वैराग्य बिजली इतनी सतेज हो गई कि कब चतुर्मास समाप्त हो और कब हम दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करें इत्यादि ।
शाह डाबर ने अपने विचारानुसार कई साधर्मीभाइयों को गुप्त सहायता दी तथा जैन धर्म के प्रचार निमित्त और सात क्षेत्रों में पुष्कल द्रव्य व्यय कर लाभ प्राप्त किया शाह डाबर के पुत्र भी इतने विनयवान एवं सुपुत्र थे कि इस प्रकार द्रव्य के व्यय करने पर वे चुं तक भी नहीं की, इतना ही क्यों पर उल्टा खुशी हो अनुमोदन ही किया । मैं पहिले ही कह आया हूँ कि उस जमाने में निश्चय की मान्यता प्रधान थी और जहाँ निश्चय पर विश्वास है वहाँ सदेव संतोष ही रहता हैं। । उस जमाने के लोग दूसरों की आशा पर नहीं पर अपनी भुजाओं पर जीवन व्यतीत करते थे और उनके लिये यह बड़े से बड़ा सुख था ।
दुनियां कुछ भी करो समय तो अपना काम करता ही जाता हैं। इधर तो चतुर्मास समाप्त होता हैं उधर शाह डाबर और उनकी धर्म पत्नी पन्ना दीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। पर उन वृद्ध दम्पति की दीक्षा की भावना देख चन्द्रावती के तथा आस पास के आये हुये लोगों के अन्दर से कई ३२ नर नारी दीक्षा लेने
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[ शाह डावर आदि ३२ की दीक्षा
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