Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६६०-६८२
पाए.
२१–मेदनीपुर के प्राग्वट गौ० भोमा ने भ० विमल० के म. प्र. २२-मुजपुर के प्राग्वट गौ. दोला ने , पार्श्व० २३-वीरपुर के प्राग्वट गौर रावल ने , , २४-देवपुर के गान्धी गौ० नींबा ने , , २५-लाढापुर के बोहरा गौ० कांना ने , २६-भीनामाल के श्रीष्टि गौ० सज्जन ने २७-मंडाणी के बाप्पनाग गौ. नौदा ने २८--शौर्यपुर के भाद्र गौ० माना ने ,, ,, २९-- मथुरा के करणाट गी० खंगार ने , शान्ति ३.-वैराटपुर के प्राग्वट वंशीय जोराने , चन्द्रप्रभ । ३१-कतिलपुर के प्राग्वट वंशीय थाना ने , श्रादीश्वर के , ,
इत्यादि अनेक स्थानों पर जैन मंदिरों की प्रतिष्ठाए करवाई ! कहने की आवश्यकता नहीं है कि उस जमाना में जनता की मन्दिरों पर कितनी श्रद्धा थी दूसरे जैनाचार्यों ने भी जहाँ नये जैन बनाये वहाँ सबसे पहला मन्दिर का उपदेश दिया करते थे इससे एक तो धर्म पर श्रद्धा मजबूत बनी रहती दूसरे इससे गृहस्थों के पुन्य भी बढ़ते थे कारण इस निमित कारण से गृहस्थों के घर से प्रतिदिन कुछ न कुछ द्रव्य निकल हो जाता । जब उस समय का इतिहास देखा जाता है तो इस प्रकार के मन्दिरों की आवश्यकता भी थो तीसरे उस समय जैनों की संख्या करोड़ों की थी और उसके पास लक्ष्मी भी अखूट थी और वे लोग तीर्थों के संघ निकलने में मन्दिर बनाने में साधर्मी भाइयों को सहायता देने में अपने जीवन की सार्थकता समझते थे इत्यादि कारणों से पाया जाता है कि उस समय प्रत्येक आचार्य के समय इस प्रकार के मन्दिरों की प्रतिष्टा हुआ करती थी मैंने वहां पर केवल थोड़े से नामों का ही उल्लेख किया है। चार वीस पट्ट सरि शोभे, देवगुप्त यक्षधारी थे।
कुमट गोत्र उद्योत किया गुरु, जैनधर्म प्रचारी थे। शुद्ध संयम अरु तप उत्कृष्टा, ज्ञान गुण भंडारी थे ।
सुविहित शिरोमणि जिनकी सेवा, करते पुन्य के भारी थे । ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के २४ वें पट्ट पर आचार्य देवगुप्तसूरि महान प्रभाविक आचार्य हुये ॥
सूरिजी का समाधि स्वर्गवास ]
६.३
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