Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० २३५-२६० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रह भी गया था और वे लोग ग्राम नगरों में नहीं पर पर्वतों की श्रेणियों एवं जंगलों में जाकर देवी पूजा के नाम पर पशु हिंसा कर मांस मदिरा सेवन करते थे । यहां सब एकत्र होने का भी यही कारण था ।
इत्यादि ।
भाग्यवसात् श्राचार्य कक्कसूरिजी वहां जा निकले और उन निरपराधी मूक् प्राणियों को देख आपका हृदय दया से लबालब भर गया और सूरिजी ने अमेश्वर लोगों को कहा महानुभावो ! आप यह क्या कर रहे हो ? आपकी आकृति से तो आप किसी खानदानी घराने के पाये जाते हो फिर समझ में नहीं आता है. कि इन निरपराची प्राणियों को यहां एकत्र क्यों किया है जंगली लोगों ने कहा महात्माजी आप अपने सूरिजी ने कहा कि महानुभावो ! मुझे आप पर और इन मूक प्राणियों पर करुणा आ रही है । श्रतः मैं आपको कुछ कहना चाहता हूँ । उन जंगलियों के अन्दर कई ऐसे भी मनुष्य थे उन्होंने कहा महात्माजी ! आप क्या कहना चाहते हो जल्दी से कह दीजिये ।
रास्ते जावें आपको इससे
क्या प्रयोजन है ?
सूरिजी -मैं आपसे इतना ही पूछना चाहता हूँ कि आपके किसी देवगुरु का इष्ट है या नहीं ? जंगली - इष्ट क्यों नहीं हम ईश्वर का इष्ट रखते हैं और यथावकाश ईश्वर का भजन स्मरण भी
करते हैं ।
सूरिजी -- तब तो आप ईश्वर के कथन को भी मानते होंगे ?
जंगली - क्यों नहीं हम ईश्वर के बचनों को बारबार मानते हैं ।
सूरिजी - यह भी आपको मालूम है कि ईश्वर ने आपके लिये क्या कहा है ?
जंगली - ईश्वर ने क्या कहा है ?
सूरिजी -- लीजिये मैं आपको ईश्वर का कथन सुना देता हूँ ।
सब लोग तमाशगिरि की भांति ईश्वर का सन्देश सुनने को एकत्र होगये और सूरिजी उनको कहने लगे ।
मार्यमाणस्य हेमाद्रिं राज्यं चापि प्रयच्छतु । तदनिष्टं परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति ।। वरमेकस्य सत्वस्य प्रदत्ताऽभयदक्षिणा | न तु विप्रसहस्रेभ्यो गोसहस्रमलङ्कृतम || हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥ महतामपि दावानां कालेन क्षीयते फलम् भीताभयप्रदानस्य क्षय एव न विद्यते ॥ नातो भूयस्तमो धर्म: कश्चिदन्योऽस्ति भूतले, प्राणिन | भयभीतानामभयं यत्प्रदीयते । अभयं सर्वसत्वेभ्यो यो ददाति दया परः, तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयमेव न विद्यते ।। यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु, तस्य ज्ञानं च मोक्षश्च न जटाभस्माचीवरे अमेध्यमध्ये कीटटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये, समाना जीविताकाङ्क्षा समं मृत्युभयं द्वयोः || यो यत्र जायते जन्तुः स तत्र रमते चिरम्, अतः सर्वेषु जीवेषु दयां कुर्वन्ति साधवः । यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातकाः || तामिस्रगन्धतामिसं महारौखरौखम्, नरकं कालसूत्रं च महानरकमेव च ॥
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[[ आचार्य ककसूरि और जंगली
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