Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 881
________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३. प्राचार्यश्री कक्कसूरि (चतुर्थ ) आदित्यस्तु स नाग गोत्रगसुधीः ककः सुसूरिनुतः । पट्शास्त्री विधिना दधौ वनितया साकं स्वदीक्षां च यः ।। श्रुत्वा गर्जन तर्जनं सुविपुलं शत्रोः कुलं पाद्रवत् । जैनादेश विशेषतां तु ततवान् तेनायमस्ति स्तुतः ।। WARA आचा चार्य श्रीषकसूरिश्वरजी महाराज धर्मप्रचार करने में अद्वितीय वीर थे । आपका अखंड यश और प्रकाण्ड प्रभाव जनता में खूब फैला हुआ था । आपके अलौकिकगुण करने में वृहस्पति Sear भी असमर्थ था श्रार्य्य देशों में कुनाल एक प्रसिद्ध देश है जिसकी वीर प्रसूति भूमि पर लोहाकोट नामक का स्वर्ग सदृश नगर है इस नगर में मंत्री पृथुसेनादि कई नररत्न उत्पन्न हुए जिन्हों के जीवन पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ आये हैं उन पृथुसेन की संतान परम्परा में कनक सेन नामक पुरुष हुश्रा जो धनमें कुबेर और बुद्धि में वृहस्पति की स्पदा करता था आपके गृहदेवी का नाम प्रभावती था आपका दम्पति जीवन बड़े ही सुख शान्ति में व्यतीत हो रहा था मंत्री कनकन के शिर पर राज कार्य की जुम्मावारी होने पर भी वह सदैव धर्म करनी में तत्पर रहता था एक समय प्रभावती देवी ने अर्द्धनिशा में नागेन्द्र का शुभ स्वप्न देखा और उस स्वप्ने की बात अपने पतिदेव को कही जिसको सुनकर मंत्री ने बड़ा ही हर्ष मनाया जिन मदिरों में स्नानादि महोत्सव किया माता प्रभावती को गर्भ के प्रभाव से अच्छे २ दोहले उत्पन्न हुए जिसको मंत्री ने बड़ी खुशी के साथ पूर्ण किये जब माता प्रभावती ने शुभ समय पुत्ररत्न को जन्म दिया तो मंत्री के हर्ष का पार नहीं रहा उसने अपने वहाँ मंगल मनाता हुश्रा धर्म कार्यों में वृद्धि की एवं याचकों को पुष्कल दान दिया और महोत्सव पूर्व बारहवें दिन नागेन्द्र के स्वप्नानुसार अपने नवजात पुत्र का नाम नागसेन रक्खा । मंत्रीश्वर ने अपने प्यारे पुत्र के पालन पोषण का अग्छा प्रबन्ध किया कि उसके स्वास्थ्य में किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचे पूर्व जमाना में बच्चों के खेल कूद भी ऐसे होते थे कि उसके संस्कार शुरु से ही अच्छे जम जाते थे मंत्री कनकसेन और प्रभावती शुरु से ही जैन धाँउपासक थे इतना ही क्यों पर वे धर्म कार्य में बड़ी रूची एवं लग्न वाले थे बच्चों के शुरु से अध्यापक उनके माता पिता ही होते हैं यदि वे अपने बाल बच्चों के संस्कार अच्छे बनाना चाहे तो सहज ही में बना सकते हैं पर वर्तमान इस ओर लक्ष बहुत कम दिया जाता है नतीजा हमारे सामने है । अस्तु । नागसेन जब आठ वर्ष का हुआ तो उसको विद्याध्यान के लिये पाठशाला में प्रवेश किया नागसेन ने पूर्व जन्म में ज्ञानपद एवं सरस्वती देवी की उज्वल भावों से आराधना की थी कि उसके लिये विद्या देवी स्वयं वरदाई होगई थी वह अपने सहपाठियों से सदैव अप्रेश्वर ही रहता था यह बात सच्च है कि पूर्वभव के संस्कार मनुष्य के साथ ही जन्म ले लिया करते हैं। जब नागसेन युवकावस्था में पदार्पण किया तो मंत्री कनकसेन ने उसी नगर में बाप्पनाग गौत्रीय ६५२ [लोहाकोट नगर में मंत्री नागसेन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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