Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य यदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६१८–६३५
के जाने के बाद सुदर्शन का रत्न लुटा गया और वैश्या रफूचक्कर हो गई। दूसरे दिन जब बीमार आये तो सुदर्शन ने दरवाजा नहीं खोला और कहला दिया कि अब मेरे अन्दर वह गुण नहीं रहा है कि जिससे आप लोगों का रोग चला जाता था अर्थात् माया कपटाई रहित सत्य बात थी वह सबके सामने कह दी । फिर भी लोगों ने अति आग्रह किया जिससे सुदर्शन ने दरवाजा खोला तो भी बीमारों का आधा रोग चला गया अर्थात् जो रोग एक दिन में जाता था वह दो दिनों में जाना लगा । सुदर्शन ने सोचा कि यदि मैं पहले से ही दीक्षा ले लेता तो श्राज मेरा यह दिन नहीं आता खैर अब भी दीक्षा लेना अच्छा है सुदर्शन ने माता पिता की आज्ञा लेकर मुनिराज के पास दीक्षा लेली । मुनिराज श्री ने धर्मसी को ब्रह्मचर्य का महात्म्य पर उदाहरण सुना कर केवल धर्मसी पर ही नहीं पर उपस्थित जनता पर ब्रह्मचर्य एवं सत्य का अच्छा प्रभाव डाला जिसमें धर्मसी की इच्छा तो केवल जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करना ही क्यों । पर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने की होगई ।
इत्यादि मुनिराज का उपदेश सुनकर धर्मसी ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालूँगा और जल्दी दीक्षा धारण कर लूँगा । यह बात क्रमशः शाह लाखण के कानों तक पहुँची तो शाह लाखण ने धर्मसी की शादी जल्दी कर देने का विचार कर लिया पर जब धर्मसी को इस बात का पता लगा तो उसने साफ शब्दों में कह दिया कि मैंने तो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने की प्रतिज्ञा करली है और मेरी इस प्रतिज्ञा को मनुष्य तो क्या पर देवता भी बड़े ही विचार में पड़ गया कि अब इस धर्मसी को कैसे समझाया जाय ।
भंग नहीं कर सकता है । शाह लाखण
इधर आचार्य रत्नप्रभरि भू भ्रमण करते हुये सत्यपुर नगर में पधार गये श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । शाह लाखण सूरिजी का परम भक्त श्रावक था । एक दिन सूरिजी से अर्ज की कि प्रभो ! धर्मी भी बालक है इसकी शादी करनी है पर इसने किसी की बहकावट में आकर हट पकड़ लिया है कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करूँगा इसकी मुझे बड़ी भारी दुविधा लगी हुई है कि अव मैं मैं क्या करू ? सूरिजी ने कहा लाखण यदि धर्मसी सच्चे दिल से ब्रह्मचर्य पालन करना चाहता है तब तो तेरा होभाग्य है । फिर कभी समय मिलने पर मैं इसकी परीक्षा कर लूँगा ।
सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य मय होता था जो धर्मसी को विशेष रुचिकर था। एक दिन धर्मसी ने सूरिजी के पास जाकर अर्ज की कि हे प्रभो ! मैंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन की तो प्रतिज्ञा करली है पर अब मेरे माता पिता मुझे कई प्रकार से तंग कर रहे हैं । अतः मेरी इच्छा है कि मैं आपके चरण कमलों में दीक्षा लेकर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करूँ ।
सूरिजी ने कहा धर्मसी ये तो सोने में सुगन्धवाली कहावत को तू चरितार्थ करता है । अगर तूने ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करली है तब तो अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने को दीक्षा लेना
अच्छा है और निरतिचारव्रत तब ही पालन हो सकेगा। फिर भी सूरिजी ने धर्मसी की कई प्रकार से परीक्षा करली जिसमें धर्मसी एक योग्य एवं होनहार ही पाया गया अतः सूरिजी ने लाख को बुलाकर कह दिया कि मैंने धर्मसी की ठीक परीक्षा करली है यह एक तुम्हारे कुल में अमूल्य रत्न है । यह केवल ब्रह्मचर्यव्रत ही पालन करना नहीं चाहता है पर इसकी इच्छा तो दीक्षा लेने की है । यदि यह दीक्षा लेगा तो जैनधर्म का उद्धार करने वाला एक प्रभाविक पुरुष होगा इत्यादि ।
आचार्य रत्नप्रभसूरि- सत्यपुर ]
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