Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 875
________________ वि० सं० २१८-३३५ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास व्याख्यान का मुख्य ध्येय त्याग वैराग्य और संसार की असारता बतलाने का था और हलकर्मी जीवों को आपका उपदेश लग भी जाता था आज हमें आश्चर्य होता है कि हम वर्षों तक उपदेश देते हैं कोई विरले ही दीक्षा लेते हैं तब उस जमाने में थोड़ा सा उपदेश से बहुत से लोग दीक्षा लेने को तैयार हो जाते थे इसका कारण यही हो सकता है कि उस जमाना के जीवों के क्षयोपसमथी वे लोग भाग्यशाली थे और अपने कल्याण को खरे जिगर से चाहते थे सूरिजी के चतुर्मास करने से धर्म की अच्छी उन्नति हुई कई सात पुरुष और चौदह बहनों सूरिजी के चरणों में दीक्षा लेने को तैयार हो गये चतुर्मास समाप्त होते ही जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सवादि दीक्षा की तैयारियें होने लगी । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त और स्थिर लग्न ने उन मुमुar को विधि विधान से दीक्षा दे कर उनका उद्धार किया । तत्पश्चात वहाँ से ग्रामानुग्राम विहार करते घाट नगर में पधारे वहाँ का श्रीसंघ ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया । सूरिजी के पास सैकड़ों साधु रहते थे जब आप बढ़ा नगर से विहार करते तब थोड़े थोड़े साधुत्रों को सर्वत्र विहार की आज्ञा दे देते थे कि कोई भी जैन बसती वाला ग्राम धर्मोपदेश से वंचित नहीं रहता था । यही कारण है कि वे जैनधर्म का प्रचार करने में अच्छी सफलता प्राप्त कर लेते थे। मेदपाट में पहले से ही सूरिजी के साधुविहार करते थे जब सूरिजी को आघाट नगर में पधारे सुना तो वे सब दर्शनार्थी आये सूरिजी ने उनके प्रचार कार्य की खूब सराहना कर उनका उत्साह को द्विगुनित कर दिया कि भविष्य के लिये दूसरे मुनि भी अपना प्रचार कार्य को बढ़ाते रहे । सूरिजी शासन तन्त्र चलाने में बड़े ही कुशल थे जिन साधुत्रों ने मेदपाट में बिहार करने को बहुत अर्सा हो गया था उनको अपने साथ में ले लिये और अपने पास के साधुओं को मेदपाट में विहार करने की आज्ञा फरमादी । सूरिजी महाराज स्वतन्त्र विहार करने वाले मुनियों में पदवीधरों को श्राव श्यकता को भी जानते थे अत: आपने इसी आघाट नगर में कई योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान करने का भी निश्चय कर लिया था। इससे वहाँ के श्रीसंघ में हर्षका पार नहीं रहा निधानक बड़े ही त्यागी वैरागी और तपस्वी थे । श्राप पहिले तो ज्ञान सम्पादन करने में जुट गये अतः सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा से थोड़े ही समय में जैनागमों का अध्ययन कर लिया और साथ में व्याकरण न्याय तर्क छन्द अलंकारादि साहित्य के आप धुरंधर विद्वान बन गये तर्क वाद एवं युक्ती प्रमाण तो आपका इतना जबर्दस्त था कि वादी प्रतिवादी आपके सामने ठहर ही नहीं सकते थे । कहा भी है कि 'कर्मेरा सो धर्मेशूरा' जब आप संसार में मंत्री पद को सुशोभित करते हुये राजतंत्र चलाने में कुशल थे तो यहाँ धर्म शासन चलाने में दक्ष हों तो कौनसी आश्चर्य की बात है । सूरिजी महाराज ने मुनि निधानकलस की योग्यता पर विचार कर कुमट गोत्रिय मंत्री रणदेव के महामहोत्सव पूर्वक कई मुनियों को पदवियां प्रदान की जिसमें निधानकलस को उपाध्याय पद से विभूषित तपश्चात् सूरीश्वरजी भ्रमण करते हुए मरुधर की ओर पधार रहे थे तो मरुधर वासियों के उत्साह का पार नहीं रहा । वे पहले से ही आपश्रीजी के दर्शनों के पिपासु बन रहे थे - यह तो हम कई बार कह आये हैं कि उपकेशगच्छाचायों की धर्म प्रचार के लिये तो एक पद्धति ही बन गई थी कि वे गच्छनायकता की जुम्मावारी को अपने शिर पर लेते थे तो एक वार तो इस प्रकार प्रदक्षिणा दे ही देते थे । इसका खास कारण यह था कि उपकेशगच्छाचार्यों ने इन प्रदेशों में भ्रमन कर लाखों नहीं पर करोड़ो अजैनों को जैन बनाये । श्रतः उनको धर्मोपदेश देना एक जरूरी काम था । यद्यपि Jain Education International ६४६ For Private & Personal Use Only [ मुनि निधान कलस की पदवी jailsShbrary.org

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