Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५५७-१७४
दिन में कार्य प्रारम्भ कर दिया । जहाँ द्रव्य खर्चने में उदारता हो वहाँ कार्य बनने में क्या देर लगती है । बस, थोड़े ही समय में एक शत्रुजय तीर्थ तैयार हो गया।
इधर शाह लाला ने अपने नगर में तथा बाहर के ग्राम नगरों में आमंत्रण दे दिया तथा यह एक नया कार्य होने से श्रीसंघ में बहुत उत्साह फैल गया। चारों ओर से श्रीसंघ खूब गहरी तादाद में आने लगा जिसका स्वागत शाह ने अच्छी तरह से किया।
शुभ दिन अष्टान्हि का महोत्सव प्रारम्भ हुआ। माता ललिनादेवी ने अपनी सखियों के साथ पैदल चल कर धबल पर्वत पर जाकर भगवान् आदीश्वर के दर्शन पूजन किया और ज्यों-ज्यों साधर्मी भाइयों को देखा त्यों-त्यों उसके दिल एवं गर्भ के जीव को बड़ा भारी आनन्द हुआ। श्री संघ ने आठ दिन बड़ी ही धामधूम पूर्वक अठाई महोत्सव मनाया। शाह लाला ने आठ दिन स्वामी वात्सल्य पूजा प्रभावना की। संघ को पहरामनी देकर विसर्जन किया। इस महोत्सव में शाह लाला ने तीन लक्ष्य द्रव्य व्यय कर सम्यक्त्व गुण को बढ़ाया। यह सब गर्भ में आये हुये पुन्यशाली जीव की पुन्यवानी का ही प्रभाव था।
इसी प्रकार एक बार माता सुबह प्रतिक्रमण कर रही थी तो उसमें 'तियलोए चइय वन्दे' सूत्र आया तो आपकी भावना हुई कि मैं तीनों लोकों के चैत्यों को वन्दन करू। यह बात शाई लाला को सुनाई तो उसने बड़ी खुशी के साथ तीन लोक की रचना करवा कर ललितादेवी का मनोरथ पूर्ण किया । इस प्रकार शुभ दोहला और मनोरथों को सफल बनाती हुई माता ने शुभ रात्रि में पुत्र को जन्म दिया । यह शुभ समाचार सुनते ही शाहलाला के घर में ही नहीं पर नगर भर में हर्षनाद होने लग गया। सजनों को सन्मान, याचकों को दान और जिनमन्दिरों में अष्टान्हिक महोत्सवादि करवाकेशाह लाला ने खूब हर्ष मनाया। क्रमशः नवजात पुत्र का नाम 'त्रिभुवनपाल' रखखा । वास्तव में त्रिभुवनपाल त्रिभुवनपाल ही था । इनकी बालक्रीडा होनहार की भांति अनुकरणीय थी । माता पिता ने त्रिभुवन के पालन पोषण और शरीर स्वास्थ्य के लिये अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। माता पिता धर्मज्ञ होते हैं तब उनके बालबच्चों के धार्मिक संस्कार स्वभाविक सुदृढ़ बन जाते हैं । त्रिभुवन की उम्र ८ वर्ष की हुई तो विद्याध्यन के लिये पाठशाला में प्रविष्ट हुये । पूर्व जन्म की ज्ञानाराधना के कारण आपकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि आप स्वल्प समय में व्यवहा. रिक राजनैतिक एवं धार्मिक ज्ञान सम्पादन करने में आशातीत सफलता प्राप्त करली । इधर शाह लाला की कार्य कुशलता एवं बुद्धिमत्तादि गुणों से मुग्ध बन वहां के राजाभीम ने दीवान पद से भूषित कर दिया । क्यों न हो जिनके घर में पुन्यशाली पुत्र अवतीर्ण हुआ फिर कमी ही किस बात की थी। शाहलाला इतना उदार दिल वाला था कि अपने स्वधर्मी तो क्या पर नगर एवं देशवासी किसी भाई का भी दुःख उससे देखा नहीं जाता था। किसी भी प्रकार की सहायता से वे उनको सुखी बनाने की कोशिश किया करते थे। शाह लाला ने अपने धर्मज्ञ जीवन में कई बार तीर्थों के संघ निकाल कर आप सकुटुम्ब तथा अन्य हजारों लाखों भाइयों को तीर्थ यात्रा करवा कर पुष्कल पुन्य संचय किया। शाह लाला ने जैनधर्म की उन्नति करने में भी कोई बात उठा नहीं रक्खी थी साधु साध्वियों का तो वह पूर्ण भक्त ही बना रहता था । ठीक है मनुष्य को सदैव सत्कार्य करते रहना चाहिये न जाने किस समय महात्मा का आशीर्वाद मिल जाता है पर शाह लाला जो करता वह केवल परमार्थ की बुद्धि से ही करता था । कारण, उसके पास सब
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