Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जैन धर्म स्वीकार किया इसमें ऐसा कोई मतभेद नहीं है । राजा सम्प्रति ने श्राचार्य सुहस्तीसूरि के समीप जैनधर्म स्वीकार किया इसमें सब का एकमत ही हैं ।
अब हमें यह देखना है कि सम्राट् सम्प्रति ने जैनधर्म स्वीकार करने के बाद संसार में जैनधर्म का किस तरह एवं कहाँ तक प्रचार किया था ? यह बात सम्प्रति से छिपी हुई न थी कि सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर उसका भारत और भारत के बाहर किस प्रकार प्रचार किया था । सम्राट् सम्प्रति यह भी जानता था कि मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त से ही हमारा घराना जैनधर्म का उपासक ही नहीं पर कट्टर प्रचारक रहा है केवल अशोक ने ही बौधधर्म स्वीकार कर उसका प्रचार जोरों से किया था । और बौद्ध धर्म का थोड़े समय में इतना प्रचार हो जाने में दो कारण मुख्य थे एक तो महात्मा बुद्ध का घराना जैनधर्मोपासक था अलावा स्वयं बुद्ध कई अस तक जैनदीक्षित होकर जैनदीक्षा पाली थी । अतः अहिंसा के लिये उनके संस्कार पहिले से ही जमे हुए थे दूसरे वेदान्तियों की यज्ञ सम्बन्धी हिंसा से लोगों को घृणा हो रही थी । श्रतः बुद्ध को नूतन मत का जल्दी ही प्रचार हो गया । फिर भी जैनों के आचरण में जितना अहिंसा का श्रादर्श था उतना बौद्धों का नहीं था क्योंकि आप पहिले अशोक के जीवन में पढ़ चुके हो कि अशोक के बौद्धधर्म स्वीकार कर लेने के बाद भी खुद के लिए दो मयूर और एक मृग की हिंसा प्रतिदिन होती थी जब जैनधर्मोपाशक गृहस्थों के लिये इस बात की सख्त मुमानियत थी । जब हम सम्प्रति के जीवन को देखते हैं उनके जीवन में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि उनके लिये कभी किसी जीव की हिंसा हुई हो । कारण, सबसे पहले तो सम्प्रति के पिता कुनाल और माता कांचनदेवी कट्टर जैनधर्म के उपासक थे कि सम्प्रति के जन्म से ही अहिंसा के संस्कार थे और बाद तो आचार्य सुहस्तीसूरि का समागम से उसने जैनधर्म श्रद्धा पूर्वक स्वीकार कर उसका पालन किया । अतः सम्राट् अशोक की अपेक्षा सम्राट् सम्प्रति अहिंसा के लिये खूब चढ़ा बढ़ा हो तो इसमें अतिशयोक्ति एवं आश्चर्य जैसा कुछ भी नहीं है ।
सम्राट् सम्पति द्वारा जैनधर्म का प्रचार — जैन लेखकों ने अपने ग्रन्थों में राजा सम्प्रति के विषय में खूब ही विस्तार से उल्लेख किया है कि सम्प्रति ने जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार किया था जैन
अनुदिवस बहुनि प्राणासत सहस्रानि आरभिसु सुपाथाय सो अज वि यदा अयं थंम लिपी लिखिता ती एवं प्राणा आरमे रे सुपथ यदो मोर एको मिगे से पि च मिगे नो धुवे"
संस्कृतानुवाद - देवानं प्रियस्स प्रियदर्शिनः राज्ञः अनुदिवसं बहुनि प्राण शत सहस्राणि आलसत सूपार्थाय तत् इदानिं यदा इयं धर्मलिपिः लिखिता तदा त्रयः एव प्राणा: आलभ्यन्ते द्वौ मयूरौ एकः मृगः सः अपि च मृगः न ध्रुवः
हिन्दी अनुवाद - पहिले देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा की पाकशाला में प्रतिदिन कई सौ एवं सहस्र जीव सूप ( शोखा - साक) बनाने के लिये मोरे जाते थे पर अब से जब कि यह धर्मं लेख लिखा जा रहा है केवल तीन जीव मारे जाते हैं अर्थात् दो मोर और एक मृग पर मृग का " अशोक के धर्मलेख गिरनार के लेख से कुछ अंश पृष्ट १०८" मारा जाना नियत नहीं है ।
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