Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ५२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बारह अंगों के नाम १) श्री श्राचारांगसूत्र । (५) श्री भगवतीजीसूत्र (९) श्री अनुत्तरोपपातिक सूत्र २) श्री सूत्रकृतांगसूत्र (६) श्री ज्ञाताधर्मकांगसूत्र (१०) श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र ३) श्रीस्थानायांगसूत्र
(७) श्री उपासक दशांगसूत्र | (११) श्री विपाकसूत्र ४) श्री समवायांगसूत्र । (८) श्री अंतगढ़ दशांगसूत्र । (१२) श्री दृष्टिवाद सूत्र
इस प्रकार ८४ श्रागमों की व्यवस्था एवं संकलना करके पुस्तकों पर लिखे गये और यह बात प्राचीन समय से प्रसिद्ध भी है कि जैनों में ८४ भागमों की मान्यता है ।
___ जब जैनियों में ८४ श्रागमों की मान्यता है तब ये क्यों कहा जाता है कि हम ४५. आगम मानते हैं ? इसके कई कारण है । एक कारण तो यह है कि वे ८४ आगम ज्यों का त्यों नहीं रहा। दूसरा कारण ८४ आगमों में ऐसे भी आगम है कि जिसको पढ़ने से साक्षात् देवता आकर खड़े हो जाते थे जैसे आरुणवारुण, धरण, वे श्रमण उत्पातिक सूत्र थे । उन्हों को समय को देख कर भंडार कर दिये । तीसरा कारण गुरु महाराज शिष्य को जिस आगम की वाचना देते हैं उसके योगोद्वाहन (तप) कराये जाते है उसके लिये वर्तमान साधुओं के शरीर शक्ति वगैरह देखके ४५ श्रांगमों की मान्यता रक्खी है कि वर्तमान साधु ४५ आगमों के योगाद्वाहन कर सकते हैं परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि ४५ आगमों के अलावा कोई आगम न माना जाय, आगम ही क्यों पर पूर्वाचार्यों के निर्माण किये ग्रन्थ भी प्रमाणिक माने जाते हैं।
इसके अलावा पूर्वाचार्यों के निर्माण किये कई ग्रन्थ भी लिखे गये होंगे । जैसे आगमवादियों की मान्यता आगमों की थी वैसे ही निगमवादियों की मान्यतानिगमों की थी। निगमवादियों का आस्तित्व किस समय से प्रारंभ होता है और उनके निगम ग्रन्थ कब और किसने बनाये इसके निणय के लिये तो अभी शोध खोज की जरूरत है पर एक समय निगमवादियों का खूब जोर शोर था इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है क्योंकि शिला लेखों वगैरह में निगमवादियों के उल्लेख मिलते हैं।
जैन शासन में दो प्रकार के मार्ग बतलाते हैं १-निर्वृति २-प्रवृति जिसमें आगमवादी निर्वृति मार्ग के पोषक थे वे आगगों का पठन पाठन एवं धर्मोपदेश देकर स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करते थे अर्थात् वे पांच महाव्रतधारी होने से जिस किसी धार्मिक कार्य में आरंभ सारंभ होता हो उसमें प्रवृति तो क्या पर अनुमति तक भी नहीं देते थे।
दूसरे निगमवादी प्रवृति मार्ग के प्रचारक थे। मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं संघ विधान संघपूजा धर्म कार्य तथा गृहस्थों के सोलह संस्कार आदि जितने प्रवृति मार्ग के कार्य थे वे सब निगमवादी करवाया करते थे।
परन्तु जैसे चैत्यवादियों में विकार पैदा होने से समाज उनसे खिलाफ हो गया था वैसे ही निगमवादियों का हाल हुआ पर उस समय उनको सुधारने की किसी को नहीं सूझी उलटे उन के पैर उखेड़ कर नष्ट करने का प्रयत्न किया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि शासन का एक अंग नष्ट होगया और यह समस्या खड़ी होगई कि जो निगमवादियों के कार्य थे उसे अब कौन करे ? ४६४
[ श्री वीर परम्परा
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