Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
दिगम्बर मत्तोत्पत्तिदिगम्बरमत—जैसे सात निन्हवों का हाल ऊपर लिखा है वैसे दिगम्बर भी एक निन्हव की पंक्ति में है इस मत की उत्पति खास तौर तो साधु वस्त्र नहीं रखने के एकान्त श्राग्रह से हुई है तत्पश्चात् उन्होंने अनेक बातों का रद्दोबदल कर डाला जैन शास्त्रों में दिगम्बर मत की उत्पत्ति निम्न लिखित प्रकार से हुई है।
रथवीरपुर नामक नगर के देवगणोद्यान में एक कृष्णार्षि नामक जैनाचार्य पधारे थे उस नगर में एक शिवभूति नामक ब्राह्मण बसता था और कुछ राज सम्बन्धी काम भी किया करता था परन्तु रात्रि के समय बहुत देरी से घर पर आने की उसकी आदत पड़ गई थी जिससे शिवभूति की स्त्री और माता घबरा गई थीं । एक दिन शिवभूति रात्रि में बहुत देरी से घर पर आया और द्वार खोलने के लिये बहुन पुकारें की परन्तु सब लोग निद्रा देवी की गोद में सो रहे थे जब शिवभूति की माता जागी तो उसने क्रोध के वश होकर वह दिया कि इस समय जिसके द्वार खुले हों वहां चला जा । बस शिवभूति माता के वचन सुनकर वहां से चला गया पर दूसरारात्रि समय अपने द्वार कौन खुला रक्खे । वह फिरता फिरता कृष्णाचार्य के मकान पर पहुँचा तो वहां द्वार खुल्ला था । शिवभूति मकान के अन्दर प्रवेश करके क्या देखताहै कि साधु जन आत्म ध्यान में संलग्न थे जिन्हों को देखकर शिवभूति ने सोचा कि माता की अशा तो हो ही गई है इनके पास दीक्षा ले लें । सुबह प्राचार्यश्री से प्रार्थना की और स्वयं लोचनी कर लिया अतः आचार्य श्री ने परोपकार की गरज से शिवभूति को दीक्षा दे दी । एक समय वहां के राजा ने जैन मुनियों के त्योग वैराग्य एवं शिवभूति के पूर्व परिचय के कारण उसको रत्न कंबल बेहराई ( अर्पण की ) जिसको लेकर शिवभूति ने
आचार्य श्री के पास आकर उनके सामने वह रत्नकंवल रख दी । उसको देखकर सूरिजी ने कहा मुनि ! यह बहुमूल्य रत्नकंवल क्यों ली है ? कारण साधुओं को तो सादा जीवन गुजारना चाहिये । केवल लज्जा एवं शित निवारणार्थ जीर्ण प्रायः शल्प मूल्य के वस्त्र से निर्वाह करना चाहिये इत्यादि कह कर उस रत्न कंवल के टुकड़े २ करके सब साधुओं को रजोहरण पर लगाने के लिये निशिथिये करके दे दिये । इस पर शिवभूति के दिल में तो बहुत आई पर गुरू के सामने वह कर क्या सकता था ! दूसरे वैराग्य एवं आत्मार्थीपना उसमें था नहीं उसने तो केवल माता के तिरस्कार से ही दीक्षा ली थी। एक समय प्राचार्य श्री साधुओं को आगम वाचना दे रहे थे उसमें जिनकल्पी मुनियों का वर्णन आया।
"जिणकप्पिया य दुविहा, पाणीपाया पडिगाह धराप । पाउरणमपाउरणा एकेकते भाव दुविहा" इत्यादि ।
शिवभूति ने गुरुमुख से जिन कल्पी का वर्णन सुना और कहा कि जब श्रागमों में जिनकल्पी का विधान बतलाया है तब यह वस्त्र पात्र रूप परिग्रह क्यों रखा जाता है । साधु को एकान्त नग्न रहकर जिनकल्पीपना अर्थात् बिलकुल नग्न रहकर संयम पालन एवं आराधन करना चाहिये इत्यादि ।
__ आचार्य श्री ने मधुर वचन और आगमों का गम्भीर आशय को समझाया कि इस समय जैसे केवल ज्ञानादि अनेक बातें विच्छेद हो गई हैं इसी प्रकार जिनकल्पीपना भी विच्छेद हो गया है कारण जिनकल्पी धर्मपालन करने के लिये सबसे पहला बन ऋषभनाराचसंहनन की आवश्यकता है बह इस समय बिच्छेद हो
गया है शिवभूति केवल नग्न रहने से ही जिनकल्पी नहीं कहा जाता है पर सबसे पहले तो दीक्षा लेकर गुरुJain Ed LR international
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