Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ११५ -- १५७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भगवान महावीर की परम्परा
भगवान महावीर की परम्परा - श्राय्र्य्यबज्रसूरि के यों तो हजारों साधु थे परन्तु उनमें ३ साधु मुख्य थे १ - आर्य्यवज्रसैन २ - श्रार्य पद्म ३- आर्य रथ । ये बज्रसैन से नागली शाखा, आर्य पद्म से पद्म शाखा, और आर्य रथ से जयन्ति शाखा निकली। इस शाखा की पट्टावली कल्पसूत्र मे दी है जिसको हम आगे प्रसंगोपात देंगे । यहाँ पर तो केवल आर्य्यबज्रसैन का ही सम्बन्ध लिखा जा रहा है ।
सैन जैन संसार में जैनधर्म को जीवित रखने वाले थे । आपने अपने जीवन में दो भयंकर बारहवर्षीय दुकाल देखे थे । एक बारहवर्षीय दुकाल आर्य्यम स्वामी के समय पड़ा था । उस समय बस्वामी ने श्रीसंघ को पट्ट पर बैठा के जहाँ सुकाल बरतता था वहाँ ले गये और दूसरा १२ वर्षीय दुकाल स्वयं बज्रसैन के समय पड़ा। जिसकी भविष्यवाणी आर्य्य वज्र ने बज्रसैन को पहिले ही कर दी थी कि जब एक लक्ष मुद्राओ के मूल्य से एक वक्त का भोजन बनेगा उसके बाद तत्काल ( तीन दिन ) ही सुकाल हो जायगा । उस दुकाल के विकट समय में जैनाचाय्यों ने किस प्रकार जैनधर्म को जीवित रक्खा | इसका अनुभव तो भुक्तभोगी ही कर सकता है। वह दुकाल एक दो वर्ष का नहीं पर लगातार १२ वर्ष तक दुष्काल पड़ता ही रहा था। उस समय बड़े-बड़े धनाढ्यों को धन के बदले धान मिलना दुष्कर होगया तो बिचारे निर्धन लोगों की तो बात ही कौन पूछता था ? जब गृहस्थों का यह हाल था तो केवल भिक्षावृति पर अपना जीवन गुजारने वाले साधुओं का निर्वाह तो होना कितना मुश्किल हो गया था । अतः बहुत से साधु शुद्ध आहार पानी के अभाव अनशन कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गये। कई साधु कठोर तपश्चर्या में लग गये तथा बहुत से साधु इधर उधर कई प्रान्तों में चले गये कि जहाँ अपना गुजारा हो सके ।
दुष्काल की भयंकरता ने जनता में त्राहि-त्राहि मचा दी थी। धनाढ्यों को मोतियों के बदले ज्वार नहीं मिलती थी । अतः कई लोगों ने विष भक्षण कर दुकाल से अपना पीछा छुड़ाया था। समय ऐसा श्रा गया था कि कोई व्यक्ति अपने यहाँ से भोजन कर तत्काल घर बाहर निकल जाता तो भिक्षुक लोग (मंगता) उनका उदर चीर के भोजन निकाल कर खा जाता था। इससे अधिक भयंकरता क्या हो सकती है । यह दुकाल एक दो प्रान्तों में ही नहीं था पर प्रायः सब भारत में फैला हुआ था। हाँ कई कई प्रान्तों में सुकाल भी बर्तता था पर वह प्रान्त भी दुकाल की कूर दृष्टि से सर्वथा वंचित नहीं रहे थे । स्वामी एक टपर संघ को बैठाकर महापुरी ( जगन्नाथपुरी ) में ले गये वहाँ सुकाल बर्तता था पर ऐसे प्रान्त बहुत कम थे ।
एक समय का जिक्र है कि आचार्य बज्रसैनसूरि सोपारपट्टन में पधारथे आपके शिष्य भिक्षा के लिये नगर में गये । उस समय भिक्षाका काम बड़ाही कठिन था तथापि श्रावक लोगों की इतनी भक्ति थी कि उनको थोड़ा बहुत भोजन मिलता तो वे पहिले साधुओं को भिक्षा देकर ही भोजन करते थे । उस नगर में जिनदास नाम का एकश्रावक बड़ा ही धनाढ्य था। आपके ईश्वरी नामकी स्त्री और कई पुत्र वगैरह बहुत सा कुदु
भी था परन्तु दुष्काल के कारण घर में धन होने पर भी धान नहीं मिलता था मोतियों के बराबर ज्वार मिली वहाँ तक तो उन्होंने अपना गुजारा किया परन्तु यह आखिर का दिन था। सेठानी विष पीस रही थी कि आज जो कुछ धान पकाया जा रहा है उसमें विष ढालकर सब खा पी कर सो जावेंगे कि जिससे सुविधा से मृत्यु हो जायगी । इनके अलावा दूसरा कोई उपाय ही नहीं था
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