Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५-५५७
उसी समय दो साधुओं ने सेठानी ईश्वरी के घर पर आकर धर्मलाभ दिया । पर शर्म के मारी सेठानी ने अपना मुंह नीचा कर लिया । कारण मुनियों को दान देने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं था । सेठानी बैठी विष पीस रही थी । मुनियों ने पूछा कि सेठानीजी क्या कर रही हो ? सेठानी ने कुछ भी जबाव नहीं दिया पर उसकी आंखों से जल की धारा बहने लगी । इस पर मुनियों ने रुदन का कारण पूंछा तो सेठानी ने कहा पूज्यवर ! आप जैसे कल्पवृक्ष मेरे घर पर पधारे पर दुःख है कि आज मेरे पास दान देने को कुछ भी पदार्थ नहीं है और मैं यह विष पीस रही हूँ कि अंन के साथ मिलाकर हम सबके साथ खा पी कर इस दुष्काल से पीछा छुड़ावें । मुनियों ने उस श्राविका की करुण कथा सुनकर कहा माता ! हम अपने गुरु के पास जाकर वापिस वें वहाँ तक आप धैर्य रखना । इतना कह कर मुनि सरिजी के पास आये और सब हाल सुनाया तो निमित्त के जानकार सूरिजी ने अपने गुरु बज्रसूरि की बात को याद की और अपने शिष्यों को कहा तुम जाकर श्राविका को कह दो कि जैसे बने वैसे तीन दिन तुम निकाल दो । तीन दिनों के बाद सुकाल हो जायगा श्रर्थात् जहाजों द्वारा पुष्कल धान आ जायगा । बस, साधु पुनः सेठानी के वहाँ गये और सेठानी को कहा कि यदि हम के सब कुटुम्ब को बचा दें तो आप हमें क्या देंगे ? सेठानी ने कहा पूज्यवर ! हम सब लोग आपके ही हैं आप जो फरभावें हम देने को तैयार हैं। इस पर मुनियों ने कहा कि तुम्हारे इतने
पुत्र
हैं उनमें से चन्द्रनागेन्द्र, निर्वृति और विद्याधर एवं चार पुत्रों को हमे दे देना । श्राविका ! इसमें हमारा कुछ भी स्वार्थ नही है पर यह तुम्हारे पुत्र जगत का उद्धार करेंगे जिसका सुयश तुमको भी मिलेगा इत्यादि सेठानी ने कहा पूज्यवर ! हम लोगों का ऐसा भाग्य हो कहाँ है ? इस दुकाल में हजारों लाखों मनुष्य अन्न वगैर त्राहि-त्राहि करके यों ही मृत्यु के मुँह में जा पड़े हैं। यदि पूर्वोक्त चारों पुत्र श्रापके चरण कमलों में दीक्षा लें तो मैं बढ़ी खुशी के साथ आज्ञा दे दूंगी | यदि और भी कोई हुक्म हो तो फरमाइये मैं शिरोधार्य करने के लिये तैयार हूँ | मुनियों ने कहा श्राविका और हमारा क्या हुक्म हो सकता है । गुरु महाराज ने फरमाया है कि जैसे बन सके आप तीन दिन निकाल दीजिये । बाद, अन्न के इतने जहाज आवेंगे कि इस दुकाल का शिर फोड़ कर गहरा सुकाल कर देंगे ।
जैनियों के लिए तीन दिन उपवास करना कोई बड़ी बात नहीं है। कारण इस बात का तो जैनियों के पूरा अभ्यास ही होता है। सेठानी ने मुनियों के वचन को तथास्तु कह कर बधा लिया और विष को दूर रख दिया । पकाये हुये भोजन से मुनियों को भी आमन्त्रण किया पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव
जावकार
सेठानी की प्रार्थना को अस्वीकार कर चल घरे ।
एक ऐसी वस्तु है कि मनुष्य आशा ही आशा में कितना ही समय व्यतीत कर देता है । यह अनुभवसिद्ध बात है कि जिस मुसाफिर के पास भोजन तैयार है वह दो चार आठ दस मील पर भी चला जाता है क्योंकि उसको आशा है कि मेरे पास भोजन है आगे चल कर करलूंगा परन्तु भोजन की आशा नहीं है उससे एक दो मील भी चलना मुश्किल हो जाता है । अतएव सेठानी सकुटम्ब ज्यों त्यों कर तीन दिन निकाल दिये । बस, चौथे दिन तो समुद्रमार्ग से बहुत सी अनाज की जहाजें आ पहुँची जिससे प्रचुरता के साथ अनाज मिलने लग गया और सब लोगों ने अपने प्राण बचा लिये ।
इधर मुनियों ने सेठानी के पास जाकर धर्मलाभ दिया। सेठानी ने बड़े ही हर्ष के साथ मुनियों
दुष्काल की भयंकरता ]
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